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आशय|सामान्य परिभाषा|अनुसंधान के विषय|अनुसंधान - विधी|निष्कर्ष|अनुसंधान के उदाहरण रत् संस्थायें|लाभ तथा कमियाँ (Benefits & Drawbacks|

 योग - दार्शनिक-साहित्यिक अनुसंधान

Yoga Research

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योग में दार्शनिक-सहित्यक अनुसंधान से आशय

        ज्ञान की किसी शाखा निर्माण वस्तुतः सम्बद्ध समाज एवं संस्कृति के उच्च प्रतिमानों तथा आदर्शों के अनुभूतिकरण, संरक्षण, संस्थापन तथा हस्तांतरण के ध्येय से प्रायः होता है। इसी प्रयास में जब वे उच्चतर आदर्श, मान्यतायें एवं विचार, जीवनपद्धति एवं व्यवहार जब लिखे, प्रकाशित किये या किसी अन्य माध्यम से संरक्षित किये जाते हैं तो इससे साहित्य का निर्माण होता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि इस साहित्य में उस सभ्यता एवं संस्कृति का इतिहास तथा उपलब्धि समाहित रहती है। इन्हीं उपलब्धियों को जब प्राप्तव्य तथा प्रज्ञा के रूप देखा जाता है तब वह दर्शन (शास्त्र) का रूप ले लेता है। और यह दर्शनशास्त्र वास्तव में सहित्य से अपृथक किन्तु सहित्य के उच्चतर आदर्शों एवं जीवन लक्ष्यों को विवरित एवं व्याख्यायित करने वाला होता है। और जब हम साहित्य पर इन लक्ष्यों, आदर्शों एवं प्राप्तव्यों के परिप्रेक्ष्य में दृष्टि आपतित करते हैं तथा हमारा मन्तव्य इनकी व्याख्या से अनुभूति के मार्ग के अनुशीलन तक प्रसारित होता है तब वास्तव में हमारा कार्य दार्शनिक-साहित्यिक अनुसंधान के दायरे में आता है। इस प्रकार ऊपर्युक्त वर्णन के आलोक में योग की परम्परा तथा योग के क्षेत्र में दार्शनिक साहित्यक अनुसंधान की सामान्य परिभाषा हम इस प्रकार कर सकते हैं – 

सामान्य परिभाषा

योग के क्षेत्र में उपलब्ध साहित्य तथा स्रोत पर लक्ष्यों, प्राप्तव्यों तथा विभिन्न विधियों तथा आनुभविक प्रयोगिक पक्ष पर उनके शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक प्रभावों का अध्ययन, अनवेषण तथा अनुशीलन योग का दार्शनिक-साहित्यिक अनुसंधान कहलायेगा।

 इस प्रकार इस दार्शनिक-साहित्यिक अनुसंधान में योग के क्षेत्र के सिद्धान्त तथा क्रिया, व्यवहार तथा विचार, प्रयोग एवं पद्धति, अन्तर्निरीक्षण एवं अवलोकन, अनुभूति एवं उपलब्धि सभी सम्मिलित होंगे।          

योग में दार्शनिक-सहित्यक अनुसंधान के विषय

योग के क्षेत्र में दार्शनिक साहित्यिक अनुसंधान के विषय विविध हो सकते हैं –

 §         योगांग  - आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध, धारणा, ध्यान, समाधि आदि  इनके विविध प्रभाव

§         योगिक अवधारणायें, यौगिक मूल्य, योग के लक्ष्य तथा प्रभाव

 

उपलब्ध साहित्य स्रोतों  तथा उनके प्रभावों का अनुसंधान कम से कम चार विविध रूपों में किया जा सकता है – 

        शारीरिक

        मानसिक

        सामाजिक

        आध्यात्मिक

दार्शनिक साहित्यक अनुसंधान - विधी

दार्शनिक साहित्यक अनुसंधान का क्षेत्र प्रायः लिखित एवं उपलब्ध स्रोत पर आधारित रहता है। इस लिखित एवं उपलब्ध स्रोत के अध्ययनार्थ मुख्य उपकरण भाषा है। भाषा के विविध नियमों से उद्भासित तथ्यों, विचारों, का सन्दर्भात्मक, प्रयोगगत्, तथा अर्थ एवं भाव गत् विश्लेषण तथा अध्ययन मुख्य रूप से विधी के रूप में प्रयुक्त होता है। यदि इस विधि को पृथक् रूप में देखा जाये तो यह निम्न तरीकों को समाहित कर सकती है –

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§           विश्लेषणात्मक विधी

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§           व्याख्यापरक विधी

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§           विवेचनात्मक विधी

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§           समीक्षात्मक विधी

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§           आलोचनात्मक विधी

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§           रचनात्मक विधी

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§           मूल्यांकन विधी

इन विधियों के प्रयोग से योग के ग्रन्थों एवं साहित्य का दार्शनिक एवं साहित्यिक मन्तव्य का प्रकाशन अभीष्ठ, इच्छित या वांछित होता है।

 

दार्शनिक-साहित्यिक अनुसंधान का निष्कर्ष

 
 

वास्तव में दार्शनिक-साहित्यक अनुसंधान क्यों किया जा रहा है?  अर्थात् उद्देश्य एवं लक्ष्य क्या हैं ? इन्हीं सभी की उपलब्धि का मूल्यांकन निष्कर्ष की विषय वस्तु है। अन्य शब्दों में कहें तो उपरोक्त कही गयी विधियों के माध्यम से साहित्य के दार्शनिक-अध्ययन का मूल्यांकन निष्कर्ष होगा, जिसमें अनुसंधान में लिये गये ग्रन्थ या स्रोत के विभिन्न बिन्दुओं का यथातथ्य विविरण प्रस्तुत किया जाएगा।

 
 

सीमा तथा लाभ

 
 

दार्शनिक-साहित्यिक अनुसंधान की निम्न सीमायें बतलायी जा सकती हैं –

*      उपलब्ध स्रोतों पर आधारित होता है अतः इसकी वैधता स्रोतों की वैधता पर आधारित होती है।

*      यह अनुभाविक कम होकर भाषाशास्त्रीय अधिक होता है।

*      विविध व्यक्तियों की विविध व्याख्याएँ हो सकती हैं।

 

दार्शनिक साहित्यिक अनुसंधान के लाभ

 *      तथ्यों के स्पष्टीकरण के लिये

*      इससे साहित्य में किसी विषय की जटिलता को दूर करने तथा स्पष्टता को प्राप्त करने का प्रयास होता है।

*      इससे विषय-वस्तु अधिक स्पष्ट तथा प्रकाशित होते हैं।

*      दार्शनिक-साहित्यिक अनुसंधान से वास्तव में विषय की ऐतिहासिकता का तथा मूल-स्वरूपता का उद्भावसन होता है।

 
 

योग के दार्शनिक साहित्यिक अनुसंधान के उदाहरण तथा प्रकार

 
 

v     योग के विविध प्रकाशित ग्रन्थ,

v     शोध परक आलेख,

v     शोधपरक-पत्रिकायें

v     जर्नल्स 

योग के दार्शनिक-साहित्यिक अनुसंधान में रत् संस्थायें तथा उनके कार्य

 

1.      मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान, नई दिल्ली

योगासन विज्ञान, यौगिक सूक्ष्म व्यायाम एवं स्थूल व्यायाम

शोध पत्रिका – योग विज्ञान का प्रकाशन

2.      कैवल्यधाम, लोनावला (पुणे)

*        मूलग्रन्थ - हठयोगप्रदीपिका, घरेण्डसंहिता, शिवसंहिता, योगसूत्र आदि विविध ग्रन्थों  का विविध मैनूस्क्रिप्ट्स के आधार पर प्रकाशन,

*        स्वतन्त्र ग्रन्थ एवं पुस्तकें,

*        पत्रिका – योगमीमांसा

3.      विवेकानन्द योग अनुसंधान संस्थान (मानित विश्वविद्यालय), बैंगलूर

*      विविध ग्रन्थ तथा पुस्तकें

*      योगांगों यथा आसन, प्राणायाम आदि के मेडिकलग्राउंड पर अध्ययन तथा अवलोकनों का प्रकाशन

4.      बिहार योग विद्यालय, मुंगेर, बिहार

*      योग के मूलग्रन्थों का व्याख्या के साथ प्रकाशन

वैज्ञानिक एवं आधुनिक दृष्टिकोंणों के योग के साहित्य का विवेचन

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 योग में दार्शनिक-सहित्यक के लाभ तथा कमियाँ (Benefits & Drawbacks)

 
 

लाभ

1.      योग के अनुसंधान के लाभ के अन्तर्गत सर्वप्रथम योग के सम्बन्ध में भ्रन्तियों एवं अस्पष्टताओं का निवारण करना

2.      योग के रहस्यात्मक पक्ष को स्पष्ट करने का प्रयास करना, साथ ही यह भी बतलाना संभव होगा कि कहाँ तक वह अनुसंधान की परिधि में तथा वस्तुनिष्ठता के दायरे में लाया जा सकता है।

3.      अनुसंधान से कोई भी ज्ञान-विज्ञान की शाखा समृद्ध तथा विकासवान होती है यही लाभ योग के अन्तर्गत अनुसंधान से योग के क्षेत्र को मिलेगा, अनुसंधान या विकास नहीं होने पर वह ज्ञान-विज्ञान जड़ एवं रूढ़ियों का शिकार हो जाता है।

4.      योग-अनुसंधान के माध्यम से इसकी उपादेयता तथा विविध विषयों एवं जीवन के विविध पक्षों के साथ इसका समायोजन तथा सम्बन्ध स्पष्ट किया जा सकता है।

5.      अनुसंधान निश्चित विधि को पालन करता है अतः इसके प्राप्तव्य एवं निष्कर्ष में निश्चितता दिखलयी जा सकती है।

6.      योग अनुसंधान के माध्यम से निष्कर्ष सभी लोगों  के द्वारा मान्य होंगे वे लोग जो नहीं जानते थे वे भी योग के सत्यों से परिचित होगें।

7.      अनुसंधान के अन्य लाभ एवं उपादेयता में यह भी कहा जा सकता है कि इससे योग के उपचारत्मक पक्ष पर अधिक प्रयोग एवं परीक्षण होंगे जिससे वे अधिक निश्चित तथा ग्राह्य होंगे।

8.      किसी एक विधि पर लगातार अनुसंधान से ही उसके सुदूर एवं भविष्यवर्ती सभी परिणामों को बतलाया जा सकेगा।

9.      अनुसंधान के माध्यम से योग के आयामों को और विस्तृत किया जा सकेगा, नयी दिशायें मिलेगीं। 

कमियाँ 

1.      अनुसंधान की एक कमी इसका ट्रायल पर आधारित होना है, किसी समूह पर किये गये अनुसंधान को सभी पर लागू करने में कठिनाई तथा अस्पष्टता की गुंजाइश रहती है, साथ ही एक साथ वृहद् दायरे में सभी ग्रुप्स पर अनुसंधान करना इस समस्या का समाधान होगा परन्तु ऐसा किया जाना भी प्रायः व्यवहारिक एवं सरल नहीं होता।

2.      योग के क्षेत्र में अनुसंधान की कमी यह भी है कि अभी तक इसमें किसी एक प्रैक्टिस या क्रिया के निश्चित मापदण्ड या नियम नहीं हैं, करने के तरीके में वैरिएशन मिलते हैं, जिससे अनुसांधन में एकनिष्ठता लाने में कठिनाई होती है।

3.      योग के सन्दर्भ में अभी भी उभयनिष्ठ पाठ्यक्रम या अध्ययन क्षेत्र पर निश्चितता नहीं बन पाई है।

4.      अनुसंधान के लिये प्रशिक्षित अनुसंधानकर्ता की आवश्यकता होती है, अभी भी उनका अभाव है।

5.      योग का अनुसंधान दीर्घावधि का प्रशिक्षण तथा अवलोकन आपेक्षित करता है, इसके लिये दीर्घावधि तक धैर्य पूर्वक निष्कर्षों के अवलोकनों की आवश्यकता होती है, शीघ्रता परक रासायनिक प्रयोगों की भाँति निष्कर्ष इसमें नहीं लिये जा सकते।

6.      योग में अभी तक अनुसंधान के मानक या स्टेंडर्ड उपकरणों का अभाव है।

 
   
     

 

 

Authored & Developed By               Dr. Sushim Dubey

&दार्शनिक-साहित्यिक अनुसंधान                      ?  डॉ.सुशिम दुबे,                             G    Yoga

Dr. Sushim Dubey

® This study material is based on the courses  taught by Dr. Sushim Dubey to the Students of M.A. (Yoga) Rani Durgavati University, Jabalpur  and the Students of Diploma in Yoga Studies/Therapy of  Morarji Desai National Institute of Yoga, New Delhi, during 2005-2008 © All rights reserved.