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गौतमधर्मसूत्राणि
प्रथमप्रश्नेप्रथमोऽध्यायः द्वितीयोऽध्यायः तृतीयोऽध्यायः चतुर्थोऽध्यायः पञ्चमोऽध्यायः प्रथमप्रश्ने षष्ठोऽध्यायः सप्तमोऽध्यायः अष्टमोऽध्यायः नवमोऽध्यायः
द्वितीयप्रश्ने प्रथमोऽध्यायः द्वितीयोऽध्यायः तृतीयोऽध्यायःचतुर्थोऽध्यायः पञ्चमोऽध्यायः षष्ठोऽध्यायः सप्तमोऽध्यायः अष्टमोऽध्यायः नवमोऽध्यायः
तृतीयप्रश्ने प्रथमोऽध्यायः द्वितीयोऽध्यायः तृतीयोऽध्यायः चतुर्थोऽध्यायः पञ्चमोऽध्यायः षष्टोऽध्यायः सप्तमोऽध्यायः अष्टमोऽध्यायः नवमोऽध्यायः दशमोऽध्यायः
गौतमधर्मसूत्राणि
अथ प्रथमप्रश्ने प्रथमोऽध्यायः
1 /1 /1. ॐ वेदो धर्ममूलम्।।
1 /1 /2. तद्विदां च स्मृतिशीले।।
1 /1 /3. दृष्टो धर्मव्यतिक्रमः साहसं च महताम्।।
1 /1 /4. अवरदौर्बल्यात्।।
1 /1 /5. तुल्यबलविरोधे विकल्पः।।
1 /1 /6. उपनयनं ब्राह्मणस्याष्टमे।।
1 /1 /7. नवमे पञ्चमे वा काम्यम्।।1 /1 /8. गर्भादिः संख्या वर्षाणाम्।।
1 /1 /9. तद्द्वितीयं जन्म।।
1 /1 /10. तद्यस्मात्स आचार्यः।।
1 /1 /11. वेदानुवचनाच्च।।
1 /1 /12. एकादशद्वादशयोः क्षत्त्रियवैश्ययोः।।
1 /1 /13. आ षोडशाद् ब्राह्मण्यस्यापतिता सावित्री।।
1 /1 /14. द्वाविंशते राजन्यस्य द्व्यधिकाया वैश्यस्य।।
1 /1 /15. मौञ्जीज्यामौर्वीसौत्र्यो मेखलाः क्रमेण।।
1 /1 /16. कृष्णरुरुबस्ताजिनानि।।
1 /1 /17. वासांसि शाणक्षौमचीरकुतपाः सर्वेषाम्।।
1 /1 /18. कार्पासं वाऽविकृतम्।।
1 /1 /19. काषायमप्येके।।
1 /1 /20. वार्क्षं ब्राह्मणस्य माञ्जिष्ठहारिद्रे इतरयोः।।
1 /1 /21. बैल्वपालाशौ ब्राह्मणदण्डौ।।
1 /1 /22. अश्वत्थपैलवौ शेषे ।।
1 /1 /23. यज्ञियो वा सर्वेषाम्।।
1 /1 /24. अपीडिता यूपवक्राः सशल्काः।।
1 /1 /25. मूर्धललाटनासाग्रप्रमाणाः।।
1 /1 /26. मुण्डजटिलशिखाजटाश्च।।
1 /1 /27. द्रव्यहस्तश्चेदुच्छिष्टोऽनिधायाऽऽचामेत्।।
1 /1 /28. द्रव्यशुद्धिः परिमार्जनप्रदाहतक्षणनिर्णेजनानि तैजसमार्तिकदारवतान्तवानाम्।।
1 /1 /29. तैजसवदुपलमणिशङ्खमुक्तानाम्।।
1 /1 /30. दारुवदस्थिभूम्योः।।
1 /1 /31. आवपनं च भूमेः।।
1 /1 /32. चैलवद्रज्जुविदलचर्मणाम्।।
1 /1 /33. उत्सर्गो वाऽत्यन्तोपहतानाम्।।
1 /1 /34. प्राङ्गमुख उदङ्खमुखो वा शौचमारभेत।।
1 /1 /35. शुचौ देश आसीनो दक्षिणं बाहुं जान्वन्तरा कृत्वा यज्ञोपवीत्यामणिबन्धनात्पाणी प्रक्षाल्य वाग्यतो हृदयस्पृशस्त्रिश्चतुर्वाऽप आचमेत्।।
1 /1 /36. द्वि परिमृज्यते।।
1 /1 /37. पादौ चाभ्युक्षेत्।।
1 /1 /38. खानि चोपस्पृशेच्छीर्षण्यानि।।
1 /1 /39. मूर्धनि च दद्यात्।।
1 /1 /40. सुप्त्वा भुक्त्वा क्षुत्वा च पुनः।।
1 /1 /41. दन्तश्लिष्टेषु दन्तवदन्यत्र जिह्वाभिमशनात्।।
1 /1 /42. प्राक्च्युतेरित्येके।।
1 /1 /43. च्युतेष्वास्राववद्विद्यान्निगिरन्नेव तच्छुचिः।।
1 /1 /44. न मुख्या विप्रुष उत्छिष्टं कुर्वन्ति। न चेदङ्गे निपतन्ति।।
1 /1 /45. लेपगन्धापकर्षणं शौचममैध्यस्य।।
1 /1 /46. तदद्भिः पूर्वं मृदा च।
1 /1 /47. मूत्रपुरीषस्नेहविस्रंसनाभ्यवहारसंयोगेषु च।।
1 /1 /48. यत्र चाऽऽम्नायो विदध्यात्।।
1 /1 /49. पाणिना सव्यमुपसंगृह्यानङ्गुष्ठमधीहि भो इत्यामन्त्रयेद् गुरुं तत्र चक्षुर्मनः प्राणोपस्पर्शनं दर्भैः।।
1 /1 /50. प्रणायमास्त्रयः पञ्चदशमात्राः।।
1 /1 /51. प्राक्कूलेष्वासनं च।।
1 /1 /52. ॐपूर्वा व्याहृतयः पञ्च सत्यान्ताः।।
1 /1 /53. गुरोः पादोपसंग्रहणं प्रातः।।
1 /1 /54. ब्रह्मानुवचने चाऽऽद्यन्तयोः।।
1 /1 /55. अनुज्ञातो उपविशेत्। प्राङ्मुखो दक्षिणतः शिष्य उदङ्खुखो वा।।
1 /1 /56. सावित्री चानुवचनम्।।
1 /1 /57. आदितो ब्राह्मण आदाने।।
1 /1 /58. ॐकारोऽन्यत्रपि।।
1 /1 /59. अन्तरागमने पुनरूपसदनम्।।
1 /1 /60. श्वनकुलसर्पमण्डूकमार्जाराणां त्र्यहमुपवासो विप्रवाश्च।।
1 /1 /61. प्राणायामा घृतप्राशनं चेतरेषाम्।
1 /1 /62. श्मशानाभ्यध्ययने चैवम्।।
इति गौतमीयसूत्रे प्रथमप्रश्ने प्रथमोऽध्यायः।।
अथ द्वितीयोऽध्यायः
1/2/1. प्रागुपनयनात्कामचारः कामवादः कामभक्षः।।
1/2/2. अहुतात्।।
1/2/3. ब्रह्मचारी॥
1/2/4. यथोपपादितमूत्रपुरीषो भवति।।
1/2/5. नास्याऽऽचमनकल्पो विद्यते।।
1/2/6. अन्यत्रापमार्जनप्रधावनावीक्षणेभ्यः॥
1/2/7. न तदुपस्पर्शनादशौचम्।।
1/2/8. नत्वेवैनमग्निहवनबलिहरणयोर्नियुञ्ज्यात्।।
1/2/9. न ब्रह्माभिव्याहारयेदन्यत्र स्वधानिनयनात्।।
1/2/10. उपनयनादर्नियमः।।
1/2/11. उक्तं ब्रह्मचर्यम्।।
1/2/12. अग्नीन्धनभैक्षचरणे।।
1/2/13. सत्यवचनम्।।
1/2/14. अपामुपस्पर्शनम्।।
1/2/15. एके गोदानादि।।
1/2/16. बहिःसंध्यत्वं च।।
1/2/17. तिष्ठेत्पूर्वामाहीतोत्तरां सज्योतिष्याज्योतिषो दर्शनाद्वाग्यतः।।
1/2/18. नाऽऽदित्यमीक्षेत।।
1/2/19. वर्जयेन्मधुमांसगन्धमाल्यदिवास्वप्नाञ्जनाभ्यञ्जनयानोपानच्छत्रकामक्रोधलोभमोहवादवादनस्नानदन्तधावनहरषनृत्यगीतपरिवादभयानि।।
1/2/20. गुरुदर्शने कण्ठप्रावृतावसिक्थिकापाश्रयणपादप्रसारणानि।।
1/2/21. निष्ठीवितहसितविष्कजृम्भितावस्फोटनानि।।
1/2/22. स्त्रीप्रेक्षणालम्भने मैथुनशङ्कायाम्।।
1/2/23. द्यूतं हीनसेवामदत्तादानं हिंसाम्।।
1/2/24. आचार्यतत्पुत्रस्त्रीदीक्षितनामानि।।
1/2/25. शुक्लवाचो मद्यं नित्यं ब्राह्मणः।।
1/2/26. अधःशय्यासनी पूर्वोत्थायी जघन्यसंवेशी।।
1/2/27. वाग्बाहूदरसंयतः।।
1/2/28. नामगोत्रे गुरोः समानतो निर्दिशेत्।।
1/2/29. अचिंते श्रेयसि चैवम्।।
1/2/30. शय्यासनस्थानानि विहाय प्रतिश्रवणम्।।
1/2/31. अभिक्रमणं वचनाददृष्टेन।।
1/2/32. अधःस्थानासनस्तिर्यग्वातसेवायां गुरुदर्शने चोत्तिष्ठेत्।।
1/2/33. गच्छन्तमनुव्रजेत्।।
1/2/34. कर्म विज्ञाप्याऽऽख्याय।।
1/2/35. आहुतोऽध्यायी।।
1/2/36. युक्तः प्रियहितयोः।
1/2/37. तद्भार्यापुत्रेषु चैवम्।।
1/2/38. नोच्छिष्टाशनस्नापनप्रसाधनपादप्रक्षालनोन्मर्दनोपसंग्रहणानि।।
1/2/39. विप्रोष्योपसंग्रहणं गुरुभार्यणाम्।।
1/2/40. नैके युवतीनां व्यवहारप्राप्तेन।।
1/2/41. सार्ववर्णिकभैक्ष्यचरणमभिशस्तपतितवर्जम्।।
1/2/42. आदिमध्यान्तेषु भवच्छब्दः प्रयोज्यो वर्णानुक्रमेण।।
1/2/43. आचार्यज्ञातिगुरु स्वेष्वलाभेऽन्यत्र।।
1/2/44. तेषां पूर्वं पूर्वं परिहरेत्।।
1/2/45. निवेद्य गुरवेऽनुज्ञातो भुञ्जीत।।
1/2/46. असंनिधौ तद्भार्यापुत्रसब्रह्मचारिभ्यः।।
1/2/47. वाग्यतस्तृप्यन्नलोलुप्यमानः संनिधायोदकम्।।
1/2/48. शिष्यशिष्टिरवधेन।।
1/2/49. अशक्तौ रज्जुवेणुविदलाभ्यां तनुभ्याम्।।
1/2/50. अन्येन घ्नन् राज्ञा शास्यः।।
1/2/51. द्वादश वर्षाण्येकवेदे ब्रह्मचर्यं चरेत्।।
1/2/52. प्रतिद्वादश वा सर्वेषु।।
1/2/53. ग्रहणान्तं वा।।
1/2/54. विद्यान्ते गुरुरर्थेन निमन्त्र्यः।।
1/2/55. कृत्वाऽनुज्ञातस्य वा स्नानम्।।
1/2/56. आचार्यः श्रेष्ठो गुरुणां मातेत्येके।।
इति गौतमीयसूत्रे प्रथमप्रश्ने द्वितायोऽध्यायः।।
अथ प्रथमप्रश्ने तृतीयोऽध्यायः
1/3/1. तस्याऽऽश्रमविकल्पमेके ब्रुवते।।
1/3/2. ब्रह्मचारी गृहस्थो भिक्षुर्वैखानसः।।
1/3/3. तेषां गृहस्थो योनिरप्रजनत्वादितरेषाम्।।
1/3/4. तत्रोक्तं ब्रह्मचारिणः।।
1/3/5. आचार्याधीनत्वमान्तम्।।
1/3/6. गुरोः कर्मशेषेण जपेत्।।
1/3/7. गुर्वभावे तदपत्यवृत्तिस्तदभावे वृद्धे सब्रह्मचारिण्यग्नौ वा।।
1/3/8. एवंवृत्तो ब्रह्मलोकमवाप्नोति जितेन्द्रियः।।
1/3/9. उत्तरेषां चैतदविरोधि।।
1/3/10. अनिचयो भिक्षुः।।
1/3/11. ऊर्ध्वरेताः।।
1/3/12. ध्रुवशीलो वर्षासु।।
1/3/13. भिक्षार्थी ग्राममियात्।।
1/3/14. जघन्यमनिवृत्तं चरेत्।।
1/3/15. निवृत्ताशीः।।
1/3/16. वाक्चक्षुः कर्मसंयतः।।
1/3/17. कौपीनाच्छादनार्थे वासो बिभृयात्।।
1/3/18. प्रहीणमेके निर्णिज्य।।
1/3/19. नाविप्रयुक्तमोषधिवनस्पतीनामङ्गमुपाददीत।।
1/3/20. न द्वितीयामपर्तु रात्रिं ग्रामे वसेत्।।
1/3/21. मुण्डः शिखी वा।।
1/3/22. वर्जयेद् बीजवधम्।।
1/3/23. समो भूतेषु हिंसानुग्रहयोः।।
1/3/24. अनारम्भी।।
1/3/25. वेखानसो वने मूलफलाशी तपःशीलः।।
1/3/26. श्रावणकेनाग्निमाधाय।।
1/3/27. अग्राम्यभोजी।।
1/3/28. देवपितृमनुष्यभूतर्षिपूजकः।।
1/3/29. सर्वातिथः प्रतिषद्धवर्जम्।।
1/3/30. वैष्कमप्युपयुञ्जीत।।
1/3/31. न फलकृष्टमधितिष्ठेत्।।
1/3/32. ग्रामं च न प्रविशेत्।।
1/3/33. जटिलश्चीराजिनवासाः।।
1/3/34. नातिसंवत्सरं भुञ्जीत।।
1/3/35. ऐकाश्रम्यं त्वाचार्याः प्रत्यश्रविधानाद् गार्हस्थ्यस्य गार्हस्थ्यस्य।।
इति गौतमीयसूत्रे प्रथमप्रश्ने तृतीयोऽध्यायः।।
अथ चतुर्थोऽध्यायः
1/4/1. गृहस्थः सदृशीं भार्यं विन्देतानन्यपूर्वां यवीयसीम्।।
1/4/2. असमानप्रवरैर्विवाहः।
1/4/3. ऊर्ध्वं सप्तमात्पितृबन्धुभ्यो बीजिनश्च मातृबन्धुभ्यः पञ्चमात्।।
1/4/4. ब्रह्मो विद्याचारित्रबन्धुशीलसंपन्नाय दद्यादाच्छाद्यालं कृताम्।।
1/4/5. संयोगमन्त्रः प्राजापत्ये सह धर्मश्चर्यतामिति।।
1/4/6. आर्षे गोमिथुनं कन्यावते दद्यात्।।
1/4/7. अन्तर्वेद्यृत्विजे दानं दैवोऽलंकृत्य।।
1/4/8. इच्छन्त्याः स्वयं संयोगो गान्धर्वः।।
1/4/9. वित्तेनाऽऽनतिः स्त्रीमातमासुरः।।
1/4/10. प्रसह्याऽऽदानाद्राक्षसः।।
1/4/11. असंविज्ञातोपसंगमात्पैशाचः।।
1/4/12. चत्वारो धर्म्याः प्रथमाः।।
1/4/13. षडित्येके।।
1/4/14. अनुलोमा अनन्तरैकान्तरद्व्यन्तरासु जाताः सवर्णाम्बष्ठोग्रनिषाददौष्मन्तपारशवाः।।
1/4/15. प्रतिलोमास्तु सूतमागधायोगवकृतवैदेहकचण्डालाः।।
1/4/16. ब्रह्मण्यजीजनत्पुत्रान्वर्णेभ्य आनुपूर्व्याद् ब्राह्मणसूतमागधचण्डालान्।।
1/4/17. तेभ्य एव क्षत्त्रिया मूर्धावसिक्थक्षत्त्रियधीवरपुल्कसांस्तेभ्य एव वैश्या भूञ्जकण्ठमाहिष्यवैश्यवैदेहान्पारशवयवनकरणशूद्राञ्छूद्रेत्येके।।
1/4/18. वर्णान्तरगमनमुत्कर्षापकर्षाभ्यां सप्तमे पञ्चमे वाऽऽचार्याः।।
1/4/19. सृष्ट्यन्तरजातानां च।।
1/4/20. प्रतिलोमास्तु धर्महीनाः।।
1/4/21. शूद्रायां च।।
1/4/22. असमानायां तु शूद्रात्पतितवृत्तिः।।
1/4/23. अन्त्यः पापिष्ठः।।
1/4/24. पुनन्ति साधवः पुत्राः।।
1/4/25. त्रिपुरुषमार्षात्।।
1/4/26. दश दैवद्दशैव प्राजापत्यात्।।
1/4/27. दश पूर्वान्दश परानात्मानं च ब्राह्मीपुत्रो ब्राह्मीपुत्रः।।
इति गौतमीयसूत्रे प्रथमप्रश्ने चतुर्थोऽध्यायः।।
अथ प्रथम प्रश्ने पञ्चमोऽध्यायः
1/5/1. ऋतावुपेयात्।।
1/5/2. सर्वत्र वा प्रतिषिद्धवर्जम्।।
1/5/3. देवपितृमनुष्यभूतर्षिपूजकः।।
1/5/4. नित्यस्वाध्यायः।।
1/5/5. पितृभ्यश्चोदकदानं यथोत्साहमन्यत्।।
1/5/6. भार्यादिरग्निर्दायादिर्वा।।
1/5/7. तस्मिन्गृह्याणि कर्माणि।।
1/5/8. देवपितृमनुष्यज्ञाः स्वाध्यायश्च बलिकर्म।।
1/5/9. अग्नावग्निर्धन्वन्तरिर्विश्वे देवाः प्रजापतिः स्वष्टकृदिति होमः।।
1/5/10. दिग्देवताभ्यश्च यथास्वम्।।
1/5/11. द्वार्षु महद्भयः।।
1/5/12. गृहदेवताभ्यः प्रविश्य ।।
1/5/13. ब्रह्मणे मध्ये ।।
1/5/14. आकाशायेत्यन्तिरिक्षे बलिरुत्क्षेप्यः।।
1/5/15. नक्तंचरेभ्यश्च सायम्।।
1/5/16. स्वस्ति वाच्य भिक्षादानमप्पूर्वम्।।
1/5/17. ददातिषु चैवं धर्म्येषु।।
1/5/18. समाद्विगुणसाहस्रानन्त्यानि फलान्यब्राह्मणब्राह्मणश्रोत्रियवेदपारगेभ्यः।।
1/5/19. गुर्वर्थनिवेशौषधार्थवृत्तिक्षीणयक्ष्यमाणाध्ययनाध्वसंयोगवैश्वचितेषु द्रव्यसंविभागो बहिर्वेदि।।
1/5/20. भिक्षमाणेषु कृतान्नमितरेषु ।।
1/5/21. प्रतिश्रुत्याप्यधर्मसंयुक्ताय न दद्यात्।।
1/5/22. क्रुद्धहृष्टभीतार्तलुब्धबालस्थविरमूढमत्तोन्मत्तवाक्यन्यनृतान्यपातकानि।।
1/5/23. भोजयेत्पूर्वमतिथिकुमारव्याधितगर्भिणीस्ववासिनीस्थविराञ्जघन्यांश्च।।
1/5/24. आचार्यपितृसखीनां च निवेद्य वचनक्रिया।।
1/5/25. ऋत्विगाचार्यश्वशुरपितृव्यमातुलानामुपस्थाने मधुपर्कः।।
1/5/26. संवत्सरे पुनः।।
1/5/27. यत्रविवाहयोरर्वाक्।।
1/5/28. राज्ञश्च श्रोत्रियस्य।।
1/5/29. अश्रोत्रियस्याऽऽसनोदके।।
1/5/30. श्रोत्रियस्य तु पाद्यमर्घ्यमन्नविशेषांश्च प्रकारयेत्।।
1/5/31. नित्यं वा संस्कारविशिष्टम्।।
1/5/32. मध्यतोऽन्नदानमवैद्ये साधुवृत्ते।।
1/5/33. विपरीतेषु तृणोदकभूमिस्वागतमन्ततः पूजाऽनत्याशश्च।।
1/5/34. शय्यासनावसथानुव्रज्योपासनानि सद्रक्श्रेयसोः समानानि।।
1/5/35. अलपशोऽपि हीने।।
1/5/36. असमानग्रामोऽतिथिरैकरात्रिकाऽधिवृक्षसूर्योपस्थायी।।
1/5/37. कुशलानामयारोग्याणामनुप्रश्नः।।
1/5/38. अन्त्यं शूद्रस्य।।
1/5/39. ब्राह्ममस्यानतिथिरब्राह्मणः।।
1/5/40. यज्ञे संवृतश्चेत्।।
1/5/41. भोजनं तु क्षत्रियस्योर्ध्वं ब्राह्मणेभ्यः।।
1/5/42. अनयान्भृत्यैः सहाऽऽनृशंस्यार्थमानृशंस्यार्थम्।।
इति गौतमीयसूत्रे प्रथमप्रश्ने पञ्चमोऽध्यायः।।
अथ प्रथमप्रश्ने षष्ठोऽध्यायः
1/6/1. पादोपसंग्रहणं समवायेऽन्वहम्।।
1/6/2. अभिगम्य तु विप्रोष्य।।
1/6/3. मातृपितृतद्बन्धूनां पूर्वजानां विद्यागुरूणां तद्गुरूणां च।।
1/6/4. संनिपाते परस्य।।
1/6/5. स्वनाम प्रोच्याहमयमित्यभिवादो ज्ञसमवाये।।
1/6/6. स्त्रीपुंयोगेऽभिवादतोऽनियममेके।।
1/6/7. नाविप्रोष्य स्त्रीणाममातृपितृव्यभार्याभगिनीनाम्।।
1/6/8. नोपसंग्रहणं भातृभार्याणां स्वसॄणाम्।।
1/6/9. ऋत्विक्छ्वशुरपितृव्यमातुलानां तु यवीयसां प्रत्युत्थानमभिवाद्याः।।
1/6/10. तथाऽन्यः पूर्वः पौरोऽशीतिकावरः शूद्रोऽप्यपत्यसमेन।।
1/6/11. अवरोऽप्यार्यः शूद्रेण।।
1/6/12. नाम वाऽस्य वर्जयेत्।।
1/6/13. राज्ञश्चाजपः प्रेष्यः।।
1/6/14. भो भवन्निति वयस्यः समानेऽहनि जातः।।
1/6/15. दशवर्षवृद्धः पौरः पञ्चभिः कलाभरः श्रोत्रियश्चारणस्त्रिभिः।।
1/6/16. राजन्यवैश्कर्मा विद्याहीनाः।।
1/6/17. दीक्षितश्च प्राक्क्रयात्।।
1/6/18. वित्तबन्धुकर्मजातिविद्यावयांसि मान्यानि परबलीयांसि।।
1/6/19. श्रुतं तु सर्वेभ्यो गरीयः।।
1/6/20. तन्मूलत्वाद्धर्मस्य श्रुतेश्च।।
1/6/21. चक्रिदशमीस्थानुग्राह्यवधूस्नातकराजभ्यः पथो दानम्।।
1/6/22. राज्ञा तु श्रोत्रियाय श्रोत्रियाय।।
इति गौतमीयसूत्रे प्रथमप्रश्ने षष्ठोऽध्यायः।।
अथ प्रथमप्रश्ने सप्तमोऽध्यायः
1/7/1. आपत्कल्पो ब्राह्मणस्याब्रह्मणाद्विद्योपयोगः।।अनुगमनं शुश्रूषा ।।
1/7/2. समाप्ते ब्राह्मणो गुरुः।।
1/7/3. याजनाध्यापनप्रतिग्रहाः।।
1/7/4. सर्वेषाम्।।
1/7/5. पूर्वः पूर्वो गुरुः।।
1/7/6. तदलाभे क्षत्त्रवृत्तिः।।
1/7/7. तदलाभे वैश्यवृत्तिः।।
1/7/8. तस्यापण्यम्।।
1/7/9. गन्धरसकृतान्नतिलशाणक्षौमाजिनानि।।
1/7/10. रक्तनिर्णिक्ते वाससी।।
1/7/11. क्षीरं सविकारम्।।
1/7/12. मूलफलपुष्पौषधमधुमांसतृणोदकापथ्यानि।।
1/7/13. पशवश्च हिंसासंयोगे।।
1/7/14. पुरुषवशाकुमारीवेहतश्च नित्यम्।।
1/7/15. भूमिव्रीहियवाजाव्यश्चऋषभधेन्वनडुहश्चैके।।
1/7/16. नियमस्तु।।
1/7/17. रसानां रसैः।।
1/7/18. पशूनां च।।
1/7/19. न लवणकृतान्नयोः।।
1/7/20. तिलानां च।।
1/7/21. समेनाऽऽमेन तु पक्वस्य संप्रत्यर्थे।।
1/7/22. सर्वथा वृत्तिरशक्तावशौद्रेण।।
1/7/23. तदप्येके प्राणसंशये।।
1/7/24. तद्वर्णसंकाराभक्ष्यनियमस्तु।।
1/7/25. प्राणसंशये ब्राह्मणोऽपि शस्त्रमाददीत।।
1/7/26. राजन्यो वैश्यकर्म वैश्यकर्म।।
इति गौतमीयसूत्रे प्रथमप्रश्ने सप्तमोऽध्यायः।।
अथ प्रथमप्रश्नेऽष्टमोऽध्यायः
1/8/1. द्वो लोके दृतव्रतौ राया ब्राह्मणश्च बहुश्रुतः।।
1/8/2. तयोश्चतुविंधस्य मनुष्यजातस्यान्तःसंज्ञानां चलनपतनसर्पणानामायत्तं जीवनम्।।
1/8/3. प्रसूती रक्षणमसंकरो धर्मः।।
1/8/4. स एष बहुश्रुतो भवति।।
1/8/5. लोकवेदवेदाङ्गवित्।।
1/8/6. वोकोवाक्येतिहासपुराणकुशलः।।
1/8/7. तदपेक्षस्तद्वत्तिः।।
1/8/8. चत्वारिंशत्संस्कारैः संस्कृतः।।
1/8/9. त्रिषु कर्मस्वभिरतः।।
1/8/10. षट्सु वा।।
1/8/11. सामयाचारिकेष्वभिविनीतः।।
1/8/12. षड्भिः परिहार्यो राज्ञा।।
1/8/13. अवध्यश्चाबन्ध्यश्चादण्ड्यश्चाबहिष्कार्यश्चापरिवाद्यश्चापरिहार्यश्चेति।।
1/8/14. गर्भाधानपुंसवनसीमन्तोन्नयनजातकर्मनामकरणान्नप्रशनचौलोपनयनम्।।
1/8/15. चत्वारि वेदव्रतानि।।
1/8/16. स्नानं सहधर्मचारिणीसंयोगः।।
1/8/17. पञ्चानामं यज्ञानामनुष्ठानं देवपितृमनुष्यभूतब्रह्मणाम्।।
1/8/18. एतेषां च।।
1/8/19. अष्टका पार्वणः श्राद्धं श्रावण्याग्रहायणी चैत्रायाश्वयुजीति सप्त पाकयज्ञसंस्थाः।।
1/8/20. अग्न्याधेयमग्निहोत्रं दर्शपूर्णमासावाग्रयणं चातुर्मास्यानि निरूढपशुबन्धः सौत्रामणीति सप्त हविर्यज्ञसंस्थाः।।
1/8/21. अग्निष्टोमोऽत्यग्निष्टोम उक्थ्यः षोडशी वाजपेयोऽतिरात्रोऽप्तोर्याम इति सप्त सोमसंस्थाः।।
1/8/22. इत्येते चत्वारिंशत्संस्काराः।।
1/8/23. अथाष्टावात्मगुणाः।।
1/8/24. दया सर्वभूतेषु क्षान्तिरनसूया शौचमनायासो मङ्गलमकार्पण्यमस्पृहेति।।
1/8/25. यस्यैते चत्वारिंशत्संस्कारा न चाष्टावात्मगुणा न स ब्रह्मणः सायुज्यं सालोक्यं गच्छति।।
1/8/26. यस्य तु खलु संस्काराणामेकदेशोऽप्यष्टावात्मगुणा अथ स ब्रह्मणः सायुज्यं सालोक्यं च गच्छति गच्छति।।
इति गौतमीयसूत्रे प्रथमप्रश्नेऽष्टमोऽध्यायः।।
अथ प्रथमप्रश्ने नवमोध्यायः।।
1/9/1. स विधिपूर्वकं स्नात्वा भार्यामधिगम्य यथोक्तान्गृहस्थधर्मान्प्रयुञ्जान इमानि व्रतान्यनुकर्षेत्।।
1/9/2. स्नातकः।।
1/9/3. नित्यं शुचिः सुगन्धिः स्नानशीलः।।
1/9/4. सति विभवे न जीर्णमलवदद्वासाः स्यात्।।
1/9/5. न रक्तमुल्बणमन्यधृतं वासो बिभृयात्।।
1/9/6. न स्रगुपानहौ।।
1/9/7. नर्णिक्तमशक्तौ ।।
1/9/8. न रूढश्मश्रुरकस्मात्।।
1/9/9. नाग्निमपश्च युगपद्धारयेत्।।
1/9/10. नाञ्जलिना पिबेत्।।
1/9/11. न तिष्ठन्नुतद्धोदकेनाऽऽचामेत्।।
1/9/12. न शूद्राशुच्येकपाण्यावर्जितेन।।
1/9/13. न वाय्वग्निविप्रादित्यापो देवता गाश्च प्रति पश्यन्वा मूत्रपुरीषामेध्यान्व्युदस्येत्।।
1/9/14. नैता देवताः प्रति पादौ प्रसारयेत्।।
1/9/15. न पर्णलोष्टाश्मभिर्मूत्रपुरीषापकर्षणं कुर्यात्।।
1/9/16. न भस्मकेशनखतुषकपालमेधेयान्यधितिष्ठेत्।।
1/9/17. न म्लेच्छाशुच्यधार्मिकैः सह संभाषेत।।
1/9/18. संभाष्य पुष्यकृतो मनसा ध्यायेत्।।
1/9/19. ब्राह्मणेन वा सह संभाषेत।।
1/9/20. अधेनुं धेनुभव्येति ब्रूयात्।।
1/9/21. अभद्रं भद्रमिति।।
1/9/22. कपालं भगालमिति।।
1/9/23. मणिधनुरितीन्द्रधनुः।।
1/9/24. गां धयन्तीं परस्मै नाऽऽचक्षीत।।
1/9/25. न चैनां वारयेत्।।
1/9/26. नमिथुनी भूत्वा शौचं प्रति विलम्बेत।.
1/9/27. न च तस्मिन्शयने स्वाध्यमधीयीत।।
1/9/28. न चापररात्रमधीत्य पुनः प्रतिसंविशेत्।।
1/9/29. नाकल्पां नारीमभिरमयेत्।।
1/9/30. न रजस्वलाम्।।
1/9/31. च चैनां श्लिष्येन्न कन्याम्।।
1/9/32. अग्निमुखोपधमनविगृह्यवादबहिर्गन्थमाल्यधारणपापीयसावलेखनभार्ययासहभोजनाञ्जन्त्यवेक्षणक्रुद्धारप्रवेशनपादधावनासन्दीस्थभोजननदीबाहुतरणवृक्षविषमारोहणावरोहणप्राणव्यायच्छनानि वर्जयेत्।।
1/9/33. न संदिग्धां नावमधिरोहेत्।।
1/9/34. सर्वत एवाऽऽत्मानं गोपायेत्।।
1/9/35. न प्रावृत्य शिरोऽहनि पर्यटेत्।।
1/9/36. प्रापृत्य रात्रौ।।
1/9/37. मूत्रोच्चारे च।।
1/9/38. न भूमावनन्तर्धाय।।
1/9/39. नाऽऽराच्चाऽऽवसयात्।।
1/9/40. न भस्मकरीषकृष्टच्छायापथिकाम्येषु।।
1/9/41. उभे मूत्रपुरीषे तु दिवा कुर्यादुदङ्मुखः।।
1/9/42. संध्ययोश्च।।
1/9/43. रात्रौ दक्षिणामुखः।।
1/9/44. पालाशमासानं पादुके दन्तधावनमिति च वर्जयेत्।।
1/9/45. सोपानत्करश्चाऽऽसनाभिवादननमस्कारान्वर्जयेत्।।
1/9/46. न पूर्वाह्णमध्यंदिनापराह्णानफलान्कुर्याद्यथाशक्ति धर्मार्थकामेभ्यः।।
1/9/47. तेषु तु धर्मोत्तरः स्यात्।।
1/9/48. न नग्नां परयोषितमीक्षेत।।
1/9/49. न पदाऽऽसनमाकर्षेत्।।
1/9/50. न शिश्नोदरपाणिपादवाक्चक्षुश्चापलानि कुर्यात्।।
1/9/51. छेदनभेदनविलेखनविमर्दनावस्फोटनानि नाकस्मात् कुर्यात्।।
1/9/52. नोपरि वत्सतन्तीं गच्छेत्।।
1/9/53. नकुलंकुलः स्यात्।।
1/9/54. न यज्ञमवृतो गच्छेत्।।
1/9/55. दर्शनाय तु कामम्।।
1/9/56. न भक्षानुत्सङ्गे भक्षयेत्।।
1/9/57. न रात्रौ प्रेष्याहृतम्।।
1/9/58. उद्धृतस्नेहविलपनपिण्याकमथितप्रभृतीनि चाऽऽत्तवीर्याणि नाश्नीयात्।।
1/9/59. सायंप्रातस्त्वन्नमभिपूजितमनिन्दन्भुञ्जीत।।
1/9/60. न कदाचिद्रात्रौ नग्नः स्वपेत्।।
1/9/61. स्नायाद्वा।।
1/9/62. यच्चाऽऽत्मवन्तो वृद्धाः सम्यग्विनीता दम्भलोभमोहवियुक्ता वेदविद आचक्षते तत्समाचरेत्।।
1/9/63. योगक्षेमार्थमीश्वरमधिगच्छेत्।।
1/9/64. नान्यमन्यत्र देवगुरुधार्मिकेभ्यः।।
1/9/65. प्रभूतैधोदकयवसकुशमाल्योपनिष्क्रमणमार्यजनभूयिष्ठमनलससमृद्धं धार्मिकाधिष्ठितं निकेतनमावसितुं यतेत।।
1/9/66. प्रशस्तमङ्गल्यदेवतायतनचतुष्पदं प्रदक्षिणमावर्तेत।।
1/9/67. मनसा वा तत्समग्रमाचारमनुपालयेदापत्कल्पः।।
1/9/68. सत्यधर्मा।।
1/9/69. आर्यवृत्तः।।
1/9/70. शिष्टाध्यापकः।।
1/9/71. शौचशिष्टः।।
1/9/72. श्रुतिनिरतः स्यात्।।
1/9/73. नित्यमहिंस्रो मृदुर्दृढकारी दमदानशीलः।।
1/9/74. एवमाचरो मातापितरौ पूर्वापरांश्च समबन्धान्दुरितेभ्यो मोक्षयिष्यन्स्नातकः शश्वद्ब्रह्मलोकान्न च्यवते न च्यवते।।
इति गौतमीयसूत्रे प्रथमप्रश्ने नवमोऽध्यायः।।
प्रथमः प्रश्नः समाप्तः।।
अथ द्वितीयप्रश्नः
अथ द्वितीयप्रश्ने प्रथमोऽध्यायः
2/1/1. द्विजातीनामध्ययनमिज्या दानम्।।
2/1/2. ब्रह्मणस्याधिकाः प्रवचनयाजनप्रतिग्रहाः।।
2/1/3. पूर्वेषु नियमस्तु।।
2/1/4. आचार्यज्ञातिप्रियगुरुधनविद्यानियमेषु ब्रह्मणः संप्रदानमन्यत्र यथोक्तात्।।
2/1/5. कृषिवाणिज्ये वाऽस्वयंकृते।।
2/1/6. कुसीदं च।।
2/1/7. राज्ञोऽधिकं रक्षणं सर्वभूतानाम्।।
2/1/8. न्याय्यदण्डत्वम्।।
2/1/9. बिभृयाद्ब्रह्मणाञ्श्रोत्रियान्।।
2/1/10. निरुत्साहांश्च ब्राह्मणान्।।
2/1/11. अकरांश्च।।
2/1/12. उपकुर्वाणांश्च।।
2/1/13. योगश्च विजये।।
2/1/14. भये विशेषेण।।
2/1/15. चर्या च रथधनुर्भ्याम्।।
2/1/16. सङ्ग्रामे संस्थानमनिवृत्तिश्च।।
2/1/17. न दोषो हिंसायामाहवे।।
2/1/18. अन्यत्र व्यश्वसारथ्यायुधकृताञ्जलिप्रकीर्णकेशपराङमुखोपविष्टस्थलवृक्षाधिरूढदूतगोब्राह्मणवादिभ्यः।।
2/1/19. क्षत्त्रियश्चेदन्यस्तमुपजीवेत्तद्वृत्त्या।।
2/1/20. जेता लभेत सांग्रमिकं वित्तम्।।
2/1/21. वाहनं तु राज्ञः।।
2/1/22. उद्धारश्चापृथग्जये।।
2/1/23. अन्यत्तु यथार्हं भाजयेद्राजा।।
2/1/24. राज्ञो बलिदानं कर्षकैर्दशममष्टमं षष्ठं वा।।
2/1/25. पशुहिरण्ययोरप्येके पञ्चाशद्भागः।।
2/1/26. विंशतिभागः शुल्कः पण्ये।।
2/1/27. मूलफलपुष्पौषधमधुमांसतृणेन्धनानां षष्ठः।।
2/1/28. तद्रक्षणधर्मित्वात्।।
2/1/29. तेषु तु नित्ययुक्तः स्यात्।।
2/1/30. अधिकेन वृत्तिः।।
2/1/31. शिल्पिनो मासि मास्येकैकं कर्म कुर्युः।।
2/1/32. एतेनाऽऽत्मोपजीविनो व्याख्याताः।।
2/1/33. नौचक्रीवन्तश्च।।
2/1/34. भक्तं तेभ्यो दद्यात्।।
2/1/35. पण्यं वणिग्भिरर्थापचयेन देयम्।।
2/1/36. प्रनष्टमस्वामिकमधिगम्य राज्ञे प्रब्रूयुः।।
2/1/37. विख्याप्य संवत्सरं राज्ञा रक्ष्यम्।।
2/1/38. ऊर्ध्वमधिगन्तुश्चतुर्थं राज्ञः शेषः।।
2/1/39. स्वामी रिक्थक्रयसंविभागपरिग्रहाधिगमेषु।।
2/1/40. ब्राह्मणस्याधिकं लब्धम्।।
2/1/41. क्षत्त्रियस्य विजितम्।।
2/1/42. निर्विष्टं वैश्यशूद्रयोः।।
2/1/43. निध्यधिगमो राजधनम्।।
2/1/44. ब्राह्मँणस्याभिरूपस्य ।।
2/1/45. अब्रह्मणोऽप्याख्याता षष्ठं लभेतेत्येके।।
2/1/46. चौरहृतमपजित्य यथास्थानं गमयेत्।।
2/1/47. कोशाद्वा दद्यात्।।
2/1/48. रक्ष्यं बालधनमा व्यवहारप्रापणात्।।
2/1/49. समावृत्तेर्वा।।
2/1/50. वैश्यस्याधिकं कृषिवणिक्पाशुपाल्यकुसीदम्।।
2/1/51. शूद्रश्चतुर्थो वर्ण एकजातिः।।
2/1/52. तस्यापि सत्यमक्रोधः शौचम्।।
2/1/53. आचमनार्थे पाणिपादप्रक्षालनमेवैके।।
2/1/54. श्राद्धकर्म।।
2/1/55. भृत्यभरणम्।।
2/1/56. स्वदारवृत्तिः।।
2/1/57. परिचर्या चोत्तरेषाम्।।
2/1/58. तेभ्यो वृत्तिं लिप्सेत्।।
2/1/59. तत्र पूर्वं पूर्वं परिचरेत्।।
2/1/60. जीर्णान्युपानच्छत्रवासःकूर्चादीनि।।
2/1/61. उच्छिष्टाशनम्।।
2/1/62. शिल्पवृत्तिश्च।।
2/1/63. यं चायमाश्रयेद्भर्तव्यस्तेन क्षीणोऽपि।।
2/1/64. तेन चोत्तरः।।
2/1/65. तदर्थोऽस्य निचयः स्यात्।।
2/1/66. अनुज्ञातोऽस्य नमस्कारो मन्त्रः।।
2/1/67. पाकयज्ञैः स्वयं यजेतेत्येके।।
2/1/68. सर्वे चोत्तरोत्तरं परिचरेयुः।।
2/1/69. आर्यानार्ययोर्व्यतिक्षेपे कर्मणः साम्यं साम्यम्।।
इति द्वितीयप्रश्ने प्रथमोऽध्यायः।।
अथ द्वितीयप्रश्ने द्वितीयोऽध्यायः
2/2/1. राजा सर्वस्येष्टे ब्राह्मणवर्जम्।।
2/2/2. साधुकारी साधुवादी।।
2/2/3. त्रय्यामान्वीक्षिक्यां वाऽभिविनीतः।।
2/2/4. शुचिर्जितेन्द्रियो गुणवत्सहायोपायसंपन्नः।।
2/2/5. समः प्रजासु स्यात्।।
2/2/6. हितमासां कुर्वीत।।
2/2/7. तमुपर्योसीनमधस्तादुपासीरन्नन्यै ब्राह्मणेभ्यः।।
2/2/8. तेऽप्येनं मन्येरन्।।
2/2/9. वर्णानामश्रमांश्च न्यायतोऽभिरक्षेत्।।
2/2/10. चलतश्चैतान्स्वधर्मे स्थापयेत्।।
2/2/11. धर्मस्य ह्यंशभाग्भवतीति।।
2/2/12. ब्राह्मणं च पुरोदधीत विद्याभिजनवाग्रूपवयःशीलसंपन्नं न्यायवृत्तं तपस्विनम्।।
2/2/13. तत्प्रसूतः कर्माणि कुर्वीत।।
2/2/14. ब्रह्मप्रसूतं हि क्षत्त्रमृध्यते न व्यथत इति च विज्ञायते।।
2/2/15. यानि च देवोत्पातचिन्तकाः प्रब्रूयुस्तान्याद्रियेत।।
2/2/16. तदधीनमपि ह्येते योगक्षेमं प्रतिजानते।।
2/2/17. शान्तिपुण्याहस्वस्त्ययनायुष्मन्मङ्गलसंयुक्तान्याभ्युदयिकानि विद्वेषणसंवननाभिचारद्विषद्रव्यृद्धियुक्तानि च शालाग्नौ कुर्यात्।।
2/2/18. यथोक्तमृत्विजोऽन्यानि।।
2/2/19. तस्य च व्यवहारो वेदो धर्मशास्त्राण्यङ्गान्युपवेदाः पुराणम्।।
2/2/20. देशजातिकुलधर्माश्चाऽऽम्नायैरविरुद्धाः प्रमाणम्।।
2/2/21. कर्षकवणिक्पशुपालकुसीदिकारवः स्वे स्वे वर्गे।।
2/2/22. तेभ्यो यथाधिकारमर्थान्प्रत्यवहृत्य धर्मव्यवस्था।।
2/2/23. न्यायाधिगमे तर्कोऽभ्युपायः।।
2/2/24. तेनाभ्यूह्य यथास्थानं गमयेत्।।
2/2/25. विप्रतिपत्तौ त्रैविद्यवृद्धेभ्यः प्रत्यवहृत्य निष्ठां गमयेत्।
2/2/26. तथा ह्यस्य निःश्रेयसं भवति।।
2/2/27. ब्रह्म क्षत्त्रेण संपृक्तं देवपितृमनुष्यान्धारयतीति विज्ञायते।।
2/2/28. दण्डो दमनादित्याहुस्तेनादान्तान्दमयेत्।।
2/2/29. वर्णाश्रमाः स्वस्वधर्मनिष्ठाः प्रेत्य कर्मफलमनुभूय ततः शेषेण विशिष्टदेशजातिकुलरूपायुःश्रुतचित्र वृत्तवित्तसुखमेधसो जन्म प्रतिपद्यन्ते।।
2/2/30. विष्वञ्चो विपरीता नश्यन्ति।।
2/2/31. तानाचार्योपदेशो दण्डश्च पालयते।।
2/2/32. तस्माद्राजाचार्यवनिन्द्यावनिन्द्यौ।।
अथ द्वितीयप्रश्ने तृतीयोऽध्यायः
2/3/1 शूद्रो द्विजातीनभिसंधायाभिहत्य च वाग्दण्ड पारुष्याभ्यामङ्गमोच्यो येनोपहन्यात्।।
2/3/2 आर्यस्त्र्यभिगमने लिङ्गोद्धारः स्वहरणं च।।
2/3/3. गोपता चेद्वधोऽधिकः।।
2/3/4. अथ ह्यस्य वेदमुपशृणवतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रप्रतिपूरणमुदाहरणे जिह्वाच्छेतो धारणे शरीरभेदः।।
2/3/5. आसनशयनवाक्पथिषु समप्रेप्सुर्दण्ड्यः।।
2/3/6. शतं क्षत्त्रियो ब्राह्मणाक्रोशे।।
2/3/7. अध्यर्ध वैश्यः।।
2/3/8. ब्राह्मणस्तु क्षत्त्रिये पञ्चाशत्।।
2/3/9. तदर्धं वैश्ये।।
2/3/10. न शूद्रे किंचित्.।
2/3/11. ब्राह्मणराजन्यवत्क्षत्त्रियवैश्यौ।।
2/3/12. अष्टापाद्यं स्तेयकिल्बिषं शूद्रस्य।।
2/3/13. द्विगुणोत्तराणीतरेषां प्रतिवर्णम्।।
2/3/14. विदुषोऽतिक्रमे दण्डभूयस्त्वम्।।
2/3/15. फलहरिधान्यशाकादाने पञ्चकृष्णलमल्पम्।।
2/3/16. पशुपीडिते स्वामिदोषः।।
2/3/17. पालसंयुक्ते तु तस्मिन्।।
2/3/18. पथि क्षेत्रेऽनावृत्ते पालक्षेत्रिकयोः।।
2/3/19. पञ्च माषा गवि।।
2/3/20. षडुष्ट्रखरे।।
2/3/21. अश्वमहिष्योर्दश।।
2/3/22. अजाविषु द्वौ द्वौ।।
2/3/23. सर्वविनाशे शदः।।
2/3/24. शिष्टाकरमे प्रतिषिद्धसेवायां च नित्यं चैलपिण्डादूर्ध्वं स्वहरणम्।।
2/3/25. गोग्न्यर्थे तृणमेधान्वीरूद्वनस्पतीनां च पुष्पाणि स्ववदाददीत फलानि चापरिवृतानाम्।।
2/3/26. कुसीदवृद्धिर्धर्म्या विंशतिः पञ्चमाषिकी मासम्।।
2/3/27. नाति सांवत्सरीमेके।।
2/3/28. चिरस्थाने द्वैगुण्यं प्रयोगस्य।।
2/3/29. भुक्तार्धिन वर्धते।।
2/3/30. दित्सतोऽवरुद्धस्य च।।
2/3/31. चक्रकालवृद्धिः।।
2/3/32. कारिताकायिकाशिखाधिभोगाश्च।।
2/3/33. कुसीदं पशूपजलोमक्षेत्रशदवाह्येषु नातिपञ्चगुणम्।।
2/3/34. अजडापौगण्डधनं दशवर्षभुक्तं परैः संनिधौ भोक्तुः।।
2/3/35. न श्रोत्रियप्रव्रजितराजपूरुषैः।।
2/3/36. पशुभूमिस्त्रीणामनतिभोगः।।
2 / 3 / 37 रिक्थभाज ऋणं प्रतिकुर्युः।।
2 / 3 / 38 प्रातिभाव्यवणिक्शुल्कमद्यद्यूतदण्डाः पुत्रान्नाभ्याभवेयुः
2 / 3 / 39 निध्यन्वाधियाचितावक्रीताधयो नष्टाः सर्वाननिन्दितान्पुरुषापराधेन।।
2 / 3 / 40 स्तेनः प्रकीर्णकेशो मुसली राजानमियात्कर्माऽऽचक्षाणः।।
2 / 3 / 41 पूतो वधमोक्षाभ्याम्।।
2 / 3 / 42 अध्नन्नेनस्वी राजा।।
2 / 3 / 43 न शारीरो ब्राह्मणदण्डः।।
2 / 3 / 44 कर्मवियोगव्ख्यापनविवासनाङ्ककरणानि।।
2 / 3 / 45 अप्रवृत्तौ प्रायश्चित्ती सः।।
2 / 3 / 46 चोरसमः सचिवो मतिपूर्वे।।
2 / 3 / 47 प्रतिग्रहिताऽप्यधर्मसंयुक्ते।।
2 / 3 / 48 पुरुषशक्त्यपराधानुबन्धविज्ञानाद्दण्डनियोगः।।
2 / 3 / 49 अनुज्ञानं वा वेदवित्समवायवचनाद्वेदवित्समवायवचनात्।।
द्वितीयप्रश्ने तृतीयोध्यायः समाप्तः।
अथ द्वितीयेप्रश्ने चतुर्थोऽध्यायः
2 / 4 / 1 विप्रतिपत्तौ साक्षिनिमित्ता सत्यव्यवस्था।।
2 / 4 / 2 बहवः स्युरनिन्दताः स्वकर्मसु प्रात्ययिका राज्ञां निष्प्रीत्यनभितापाश्चान्यतरस्मिन्।।
2 / 4 / 3 अपि शूद्राः।।
2 / 4 / 4 ब्राह्मणस्त्वब्राह्मणवचनादनवरोध्योऽनिबद्धश्चेत्।।
2 / 4 / 5 नासमवेतापृष्टाः प्रब्रूयुः।।
2 / 4 / 6 अवचनेऽन्यथावचने च दोषिणः स्युः।।
2 / 4 / 7 स्वर्गः सत्यवचने विपर्यये नरकः।।
2 / 4 / 8 अनिबद्धैरपि वक्तव्यम्।।
2 / 4 / 9 न पीडाकृते निबन्धः।।
2 / 4 / 10 प्रमत्तोक्ते च।।
2 / 4 / 11 साक्षिसभ्यराजतर्तृषु दोषो धर्मतन्त्रपीडायाम्।।
2 / 4 / 12 शपथेनैके सत्यकर्म।।
2 / 4 / 13 तद्देवराजब्राह्मणसंसदि स्यादब्राह्मणानाम्।।
2 / 4 / 14 क्षुद्रपश्वनृते साक्षी दश हन्ति।।
2 / 4 / 15 गोऽश्वपुरुषभूमिषु दशगुणोत्तरान्।।
2 / 4 / 16 सर्वं वा भूमौ।।
2 / 4 / 17 हरमे नरकः।।
2 / 4 / 18 भूमिवदप्सु।।
2 / 4 / 19 मैथुनसंयोगे।।
2 / 4 / 20 पशुवन्मधुसर्पिषोः।।
2 / 4 / 21 गोवद्वस्त्रहिरण्यधान्यब्रह्मसु।।
2 / 4 / 22 योनेष्वश्ववत्।।
2 / 4 / 23 मिथ्यावचने याप्यो दण्ड्यश्च साक्षी।।
2 / 4 / 24 नानृतवचने दोषो जीवनं चेत्तदधीनम्।।
2 / 4 / 25 न तु पापीयसो जीवनम्।।
2 / 4 / 26 राजा प्राड्विवाको ब्राह्मणो वा शास्त्रवित्।।
2 / 4 / 27 प्राड्विवाकमध्याभवेत्।।
2 / 4 / 28 संवत्सरं प्रतीक्षेताप्रतिभायाम्।।
2 / 4 / 29 धेन्वनडुत्स्त्रीप्रजननसंयुक्ते च शीघ्रम्।।
2 / 4 / 30 आत्ययिके च।।
2 / 4 / 31 सर्वधर्मेभ्यो गरीयः प्राड्विवाके सत्यवचनं सत्यवचनं।।
द्वितीयप्रश्ने चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः।
अथ द्वितीयेप्रश्ने पञ्चमोऽध्यायः
2 / 5 / 1 शावमाशौचं दशरात्रमनृत्विग्दीक्षितब्रह्मचारिणां सपिण्डानाम्।।
2 / 5 / 2 एकादशरात्रं क्षत्त्रियस्य।।
2 / 5 / 3 द्वादशरात्रं क्षत्त्रियस्य।।
2 / 5 / 4 द्वादशरात्रं वैश्यस्यार्धमामेके।।
2 / 5 / 5 मासं शूद्रस्य।।
2 / 5 / 6 तच्चेदन्तः पुनरापतेच्छेपेण शुद्ध्येरन्।।
2 / 5 / 7 रात्रिशेषे द्वाभ्याम्।।
2 / 5 / 8 प्रभाते तिसृभिः।।
2 / 5 / 9 गोब्रह्मणहतानामन्वक्षम्।।
2 / 5 / 10 राजक्रधाच्च।।
2 / 5 / 11 युद्धे।।
2 / 5 / 12 प्रयोनाशकशस्त्राग्निविषोदकोद्बन्धनप्रपतनैश्चेच्छाताम्।।
2 / 5 / 13 पिण्डनिवृत्तिः सप्तमे पञ्चमे वा।।
2 / 5 / 14 जननेऽप्येवम्।।
2 / 5 / 15 मातापित्रोस्तनम्ातुर्वा।।
2 / 5 / 16 गर्भमाससमा रात्रीः स्रंसने गर्भस्य।।
2 / 5 / 17 त्र्यहं वा।।
2 / 5 / 18 श्रुत्वा चोर्ध्वं दशम्याः पक्षिणीम्।।
2 / 5 / 19 असपिण्डे योनिसंबन्धे सहाध्यायिनि च।।
2 / 5 / 20 सब्रह्मचारिण्येकाहम्।।
2 / 5 / 21 श्रोत्रिये चोपसंपन्ने।।
2 / 5 / 22 प्रेतोपस्पर्शने दशराक्षमाशोचमभिसंधाय चेत्।।
2 / 5 / 23 उक्तं वैश्यशूद्रयोः ।।
2 / 5 / 24 आर्तवीर्वा।।
2 / 5 / 25 पूर्वयोश्च।।
2 / 5 / 26 त्र्यहं वा।।
2 / 5 / 27 आचार्यतत्पुत्रस्त्रीयाज्यशिष्येषु चैवम्।।
2 / 5 / 28 अधरश्चेद्वेर्णः पबर्ववरणमुपस्पृशेत्पर्वो वाऽवरं तत्र शवोक्तमाशौचम्।।
2 / 5 / 29 पतितचण्डालसूतिकोदक्याशवस्पृष्टितत्स्पृष्ट्युपस्पर्शने सचैलोदकोपस्पर्शनाच्छुध्येत्।।
2 / 5 / 30 शवानुगमने च।।
2 / 5 / 31 शुनश्च।।
2 / 5 / 32 यदुपहन्यादित्येके।।
2 / 5 / 33 उदकदानं सपिण्डैः कृतचूडस्य।।
2 / 5 / 34 तत्स्त्रीणां च।।
2 / 5 / 35 एके प्रत्तानाम्।।
2 / 5 / 36 अधःशय्यासन्नो ब्रह्मचारिणः सर्वे।।
2 / 5 / 37 न मार्जयीरन्।।
2 / 5 / 38 न मांसं भक्षयेयुरा प्रदानात्।।
2 / 5 / 39 प्रथमतृतीयसप्तमनवमेषूदकक्रिया।।
2 / 5 / 40 वाससां च त्यागः।।
2 / 5 / 41 अन्ते त्वन्त्यानाम्।।
2 / 5 / 42 दन्तजन्मादि मातापितृभ्म्।।
2 / 5 / 43 बालदेशान्तरितप्रव्रजितासपिण्डानां सद्यःशौचम्।।
2 / 5 / 44 राज्ञां च कार्यविरोधात्।।
2 / 5 / 45 ब्राह्मणस्य च स्वाध्यायनिवृत्त्यर्थं स्वाध्यायनिवृत्त्यर्थम्।।
द्वितीयप्रश्ने पञ्चमोऽध्यायः समाप्तः।
अथ द्वितीयेप्रश्ने षष्ठोऽध्यायः
2 / 6 / 1 अथ श्राद्धम्।।
2 / 6 / 2 अमावास्यायां पितृभ्यो दद्यात्।।
2 / 6 / 3 पञ्चमीप्रभृतिषु वाऽपरपक्षस्य।।
2 / 6 / 4 यथाश्रद्धं रस्वस्मिन्वा।।
2 / 6 / 5 द्रव्यदेशब्राह्मणसंनिधाने वा कालनियमः।।
2 / 6 / 6 शक्तितः प्रकर्षेद् कुणसंस्कारविधिरन्नस्य।।
2 / 6 / 7 नवावरान्भोजयेदयुजः।।
2 / 6 / 8 यथोत्साहं वा।।
2 / 6 / 9 श्रोत्रियान्वाग्रूपवयःशीलसंपन्नान्।।
2 / 6 / 10 युवभ्यो दानं प्रथमम्।।
2 / 6 / 11 एके पितृवत्।।
2 / 6 / 12 न च तेन मित्रकर्म कुर्यात्।।
2 / 6 / 13 पुत्राभावे सपिण्डा मातृसपिण्डाः शिष्याश्च दद्युः।।
2 / 6 / 14 तद्भाव ऋत्विगाचार्यौ।।
2 / 6 / 15 न भोजयेत्स्तेनक्लीबपतितनास्तिकतद्वृत्तिवीरहाग्रेदिधिषुपतिस्त्रीग्रामयाजकाजापालोत्सृष्टाग्निमद्यपकुचरकूटसाक्षिप्रातिहारिकान्।।
2 / 6 / 16 उपपतिः।।
2 / 6 / 17 यस्य च सः।।
2 / 6 / 18 कुण्डाशिसोमविक्रय्यगारदाहिगरदावकीर्णिगणप्रेष्यागम्यागामिहिंस्रपरिवित्तिपरिवेत्तृपर्याधातृत्यक्तात्मदुर्वालकुनखिश्यावदन्तश्वत्रिपौनर्भवकितवाजपराजप्रेष्यप्रातिरूपिकशूद्रपतिनिराकृतिकिलासिकुसीदिवणिक्शिल्पोपजीविज्यावदिक्षतालनृत्यगीतशीलान्।।
2 / 6 / 19 पुत्रा वाऽकामेन विभक्तान्।।
2 / 6 / 20 शिष्यांश्चैके सगोत्रांश्च।।
2 / 6 / 21 भोजयेदबर्ध्वं त्रिभ्यः ।।
2 / 6 / 22 गुणवन्तम्।।
2 / 6 / 23 सद्यः श्राद्धी शूद्रातल्पगस्तत्पुरीषे मासं नयति पितॄन।।
2 / 6 / 24 तस्मात्तदहर्ब्रह्मचारी च स्यात्।।
2 / 6 / 25 श्वचाण्डालपतितावेक्षणे दुष्टम्।।
2 / 6 / 26 तस्मात्परिश्रिते दद्यात्।।
2 / 6 / 27 तिलैर्वा विकिरेत्।।
2 / 6 / 28 पङ्क्तिपावनो व शमयेत्।।
2 / 6 / 29 पङ्क्तिपावनः षडङ्गविज्ज्येष्ठसमामिकस्त्रिणाचितेतस्त्रिमधुस्त्रिसुपर्णः पञ्चाग्निः स्नातको मन्त्रब्राह्मणविद्धर्मज्ञो ब्रह्मद्यानुसंतान इति।।
2 / 6 / 30 हविःषु चैवम्।।
2 / 6 / 31 दुर्वालादूञ्श्राद्ध एवैके।।
2 / 6 / 32 अकृतान्नश्राद्धे चैवं चैवम्।।
द्वितीयप्रश्ने षष्ठोऽध्यायः।।
अथ द्वितीयेप्रश्ने सप्तमोऽध्यायः
2 / 7 / 1 वार्षिकं प्रोष्ठपदीं वोपाकृत्याधीयीतच्छन्दांसि।।
2 / 7 / 2 अर्धपञ्चमान्मासान्पढ्च दक्षिणायनं वा।।
2 / 7 / 3 ब्रह्मचार्युत्सृष्टलोमा न मासं भुञ्जीत।।
2 / 7 / 4 द्वैमास्यो वा नियमः।।
2 / 7 / 5 नाधीयीत वायौ दिवा पांसुहरे।।
2 / 7 / 6 कर्णक्षाविणि नक्तम्।।
2 / 7 / 7 वाणभेरीमृदङ्गगर्तार्तशब्देषु।।
2 / 7 / 8 श्वशृगालगर्दभसंह्रादे ।।
2 / 7 / 9 रोहितेन्द्रधनुर्नीहारेषु।।
2 / 7 / 10 अभ्रदर्शने चापर्तौ।।
2 / 7 / 11 मूत्रित उच्चारिते।।
2 / 7 / 12 निशायां संध्योदकेषु।।
2 / 7 / 13 वर्षति च।।
2 / 7 / 14 एते वलीकसेतानाम्।।
2 / 7 / 15 आचार्यपरिवेषणे।।
2 / 7 / 16 जेयोतिषोश्च।।
2 / 7 / 17 भीतो यानस्थः शयानः प्रौढपादः।।
2 / 7 / 18 श्मशानग्रामान्तमहापथाशौचेषु।।
2 / 7 / 19 पूतिगन्थान्तःशवदिवाकीर्त्यशूद्रसंनिधाने।।
2 / 7 / 20 भुक्तके चोद्गारे।।
2 / 7 / 21 ऋग्यजुषं च सामशब्दो यावत्।।
2 / 7 / 22 आकालिका निर्घातभूमिकम्पराहुदर्शनोल्काः।।
2 / 7 / 23 स्तनयित्नुवर्षविद्युतश्च प्रादुष्कृताग्निषु।।
2 / 7 / 24 अहऋर्तौ।।
2 / 7 / 25 विद्युति नक्तं चाऽऽपररात्रात्।।
2 / 7 / 26 त्रिभागादिप्रवृत्तौ सर्वम्।।
2 / 7 / 27 उल्का विद्युत्समेत्येषाम्।।
2 / 7 / 28 स्तनयित्नुरपराह्णे।।
2 / 7 / 29 अपि प्रदोषे।।
2 / 7 / 30 सर्वं नक्तमाऽर्धरात्रात्।।
2 / 7 / 31 अहश्चेत्सज्योतिः।।
2 / 7 / 32 विषयस्थे च राज्ञि प्रेते।।
2 / 7 / 33 विप्रोष्य चान्योन्येन सह।।
2 / 7 / 34 संकुलोपाहितवेदसमाप्तिच्छेर्दिश्राद्धमनिष्ययज्ञभोजनेष्वहोरात्रम्।।
2 / 7 / 35 अमावास्यायां च।।
2 / 7 / 36 द्व्यहं वा।।
2 / 7 / 37 कार्तिकी फाल्गुन्याषाढी पौर्णमासी।।
2 / 7 / 38 तिस्रोऽष्टकास्त्रिरात्रम्।।
2 / 7 / 39 अन्त्यामेके।।
2 / 7 / 40 अभितो वार्षिकम्।।
2 / 7 / 41 सर्वे वर्षाविद्युत्स्तनयित्नुसेनिपाते।।
2 / 7 / 42 प्रस्यन्दिनि।।
2 / 7 / 43 ऊर्ध्वं भोदनादुत्सवे।।
2 / 7 / 44 प्रधितस्य च निशायां चतुर्मुरूर्तम्।।
2 / 7 / 45 नित्यमेके नगरे।।
2 / 7 / 46 मानसमप्यशुचिः।।
2 / 7 / 47 श्राद्धिनामाकालिकम्।।
2 / 7 / 48 अकृतान्नश्राद्धितसंयोगाऽपि।।
2 / 7 / 49 प्रतिविद्यं च यानस्मरन्ति।।
अथ द्वितीयेप्रश्नेऽष्टमोऽध्यायः
2 / 8 / 1 प्रशस्तानां स्वकर्मसु द्विजातीनां ब्रह्मणो भुञ्जीत।।
2 / 8 / 2 प्रतिगृह्णीयाच्च।।
2 / 8 / 3 एधोदकयवसमूलउलमध्वभयाभ्युद्यतशय्यासनावसथयानपयोदधिधानाशफरीप्रियङ्गस्रह्मार्गशाकान्यप्रणोद्यानि सर्वेषाम्।।
2 / 8 / 4 पितृदेवगुरुभृत्यभरणेऽप्यन्यत्।।
2 / 8 / 5 वृत्तिश्चेन्नान्तरेण शूद्रात्।।
2 / 8 / 6 पशुपालक्षेत्रकर्षककुलसंगतकायितृपरिचारका भोज्यान्नाः।।
2 / 8 / 7 वणिक्चाशिल्पी।।
2 / 8 / 8 नित्यमभोज्यम्।।
2 / 8 / 9 केशकीटावपन्नम्।।
2 / 8 / 10 रजस्वलाकृष्णशकुनिपदोपहतम्।।
2 / 8 / 11 भ्रूणघ्नाऽवेक्षितम्।।
2 / 8 / 12 भावदुष्टम्।।
2 / 8 / 13 गवोपघ्रातम्।।
2 / 8 / 14 शुक्तं केवलमदधि ।।
2 / 8 / 15 पुनः सिद्धम्।।
2 / 8 / 16 पर्युषितमशाकभक्षस्न्हमांसमधूनि।।
2 / 8 / 17 उत्सृष्टपुंश्चल्यभिशस्तानपदेश्यदण्डिकतक्षकदर्यबन्धनिकचिकित्सकमृगय्वनिषुचार्युच्छिष्टभोजिगणविद्विषाणानाम्।।
2 / 8 / 18 अपङ्क्त्यानां प्राग्दुर्वालात्।।
2 / 8 / 19 वृथान्नाचमनोत्थाव्यपेतानि।।
2 / 8 / 20 समासमाभ्यां विषमसमे पूजातः।।
2 / 8 / 21 अनर्चितं च।।
2 / 8 / 22 गोश्च क्षीरमनिर्दशायाः सूतके।।
2 / 8 / 23 अजामहिष्योश्च।।
2 / 8 / 24 नित्यमाविकमपेयमौष्ट्रमैकशफं च।।
2 / 8 / 25 स्यन्दिनीयमसूसंधिनीनां च।।
2 / 8 / 26 विवत्सायाश्च ।।
2 / 8 / 27 पञ्चनखाश्चाशल्यकशशश्वाविद्गोधाखड्गकच्छपाः।।
2 / 8 / 28 उभयतोदत्केश्यलोमैकशफकलविङ्कप्लवचक्रवारहंसाः।
2 / 8 / 29 काककङ्कगृध्रश्येना जलजा रक्तपादतुण्डा ग्राम्यकुक्कुटसूकराः।।
2 / 8 / 30 धेन्वनडुहौ च।।
2 / 8 / 31 अपन्नदन्नवसन्नवृथामांसानि।।
2 / 8 / 32 किसलयक्याकुलशुननिर्यासाः।।
2 / 8 / 33 लोहिता व्रश्चनाः।।
2 / 8 / 34 निचुदारुहकहलाकाशुकमद्गुटिट्टिङमास्थालनक्तंचरा अभक्ष्याः।
2 / 8 / 35 भक्ष्याः प्रतुदविष्किरजालपादाः।।
2 / 8 / 36 मत्स्याश्चाविकृताः।।
2 / 8 / 37 वध्याश्च धर्मार्थे।।
2 / 8 / 38 व्यालहतादृष्टदोषवाक्प्रशस्तानभ्युक्ष्योपयुञ्जीतोपयुञ्जीत।।
द्वितीयप्रश्नेऽष्टमोध्यायः।।अथ द्वितीये प्रश्ने नवमोऽध्यायः
2 / 9 / 1 अस्वतन्त्रता धर्मे स्त्री।।
2 / 9 / 2 नातिचरेद्भर्तारम्।।
2 / 9 / 3 वाक्चक्षुःकर्मसंयता।।
2 / 9 / 4 अपतिरपत्यलिप्सुर्देवरात्।।
2 / 9 / 5 गुरिप्रसूता नर्तुमतीयात्।।
2 / 9 / 6 पिण्डगोत्रर्षिसंबन्धेभ्यो योनिमात्राद्वा।।
2 / 9 / 7 नादेवरादित्येके।।
2 / 9 / 8 नातिद्वितीयम्।।
2 / 9 / 9 जनयितुरपत्यम्।।
2 / 9 / 10 समयादन्यस्य।।
2 / 9 / 11 जीवतश्च क्षेत्रे।।
2 / 9 / 12 परस्मात्तस्य।।
2 / 9 / 13 द्वयोर्वा।।
2 / 9 / 14 रक्षणात्तु भर्तुरेव।।
2 / 9 / 15 श्रूयमाणेऽभिगमनम्।।
2 / 9 / 16 प्रव्रजिते तु निवृत्तिः प्रसङ्गात्।।
2 / 9 / 17 द्वादश वर्षाणि ब्राह्मणस्य विद्यासंबन्धे।।
2 / 9 / 18 भ्रातरि चैवं ज्यायसि यवीयान्कन्याग्न्यपयमेषु।।
2 / 9 / 19 षडित्येके।।
2 / 9 / 20 त्रीन्कुमार्यृतूनतीत्य स्वयं युज्येतानिन्दितेनोत्सृज्य पित्र्यानलंकारान्।।
2 / 9 / 21 प्रदानं प्रागृतोः ।।
2 / 9 / 22 अप्रयच्छन्दोषी।।
2 / 9 / 23 प्राग्वाससः प्रतिपत्तेरित्येके।।
2 / 9 / 24 द्रव्यादानं विवाहसिद्ध्यर्थं धर्मतनत्रसंयोगे च शूद्रात्।।
2 / 9 / 25 अन्यत्रापि शूद्राद् बहुपशोर्हीनकर्मणः।।
2 / 9 / 26 शतगोरनाहिताग्नेः।।
2 / 9 / 27 सहस्रगोश्चासोमपात्।।
2 / 9 / 28 सप्तमीं चाभुक्त्वाऽनिचयाय।।
2 / 9 / 29 अप्यहीनकर्मभ्यः।।
2 / 9 / 30 आचक्षीत राज्ञा पृष्टः।।
2 / 9 / 31 तेन हि भर्तव्यः श्रुतशीलसंपन्नश्चेत्।।
2 / 9 / 32 धर्मतन्त्रपीडायां तस्याकरमे दोषो।।
द्वितीयप्रश्ने नवमोऽध्यायः।।
अथ तृतीयप्रश्ने प्रथमोऽध्यायः
3 / 1 / 1 उक्तो वर्णधर्मश्चाऽऽश्रमधर्मश्च।।
3 / 1 / 2 अथ खल्वयं पुरुषो याप्येन कर्मणा लिप्यते यथैतदयाज्ययाजनमभक्ष्यभक्षणमबद्यवदनं शिष्टस्याक्रिया प्रतिषिद्धसेवनमिति।।
3 / 1 / 3 तत्र प्रायश्चित्तं कुर्यान्न कुर्यादिति मीमांसन्ते।।
3 / 1 / 4 न कुर्यादित्याहुः।।
3 / 1 / 5 न हि कर्म क्षीयत इति।।
3 / 1 / 6 कुर्यादित्यपरम्।।
3 / 1 / 7 पुनःस्तोमेनेष्ट्वा पुनः सवनमायान्तीति विज्ञायते।।
3 / 1 / 8 व्रात्यस्तोमैश्चेष्ट्वा।।
3 / 1 / 9 तरति सर्वं पाप्मानं तरति ब्रह्महत्यां योऽश्वमेधेन यजते।।
3 / 1 / 10 अग्निष्टुताऽभिशस्यमानं याजयेदिति च।।
3 / 1 / 11 तस्य निष्क्रयणानि जपस्तपो होम उपवासो दानम्।।
3 / 1 / 12 उपनिषदो वेदान्तः सर्वच्छन्दःसु संहिता मधून्यघमर्षणमथर्वशिरो रुद्राः पुरुषसूक्तं राजतरौहिणे सामनी बृहद्रथन्तरे पुरुषगतिर्महानाम्न्यो महावैराजं महादिवारीर्त्यं ज्येष्ठसाम्नामन्यतमद् बहिष्पवमानं कूष्माण्डानि पावमान्यः सावित्री चेति पावमानानि।।
3 / 1 / 13 पयोव्रतता शाकभक्षता फलभक्षता प्रसृतयावको हिरण्यप्राशनं घृतप्राशनं सोमपानमिति मेध्यानि।।
3 / 1 / 14 सर्वे शिलोच्चयाः सर्वाः स्रवन्त्यः पुण्या ह्रदास्तीर्थान्यृषिनिवासा गोष्ठपरिस्कन्धा इति देशाः।।
3 / 1 / 15 ब्रह्मचर्यं सत्यवचनं सवनेषूदकोपस्पर्शनमार्द्रवस्त्रताऽधःशायिताऽनाशक इति तपांसि ।।
3 / 1 / 16 हिरण्यं गौर्वासोऽश्वो भूमिस्तिला घृतमन्नमिति देयानीति।।
3 / 1 / 17 संवत्सरः षण्मासाश्चत्वारस्त्रयो वा द्वौ वैकश्चतुर्विंशत्यहोद्वादशाहः षडहस्त्र्यहोऽरात्र इति कालाः।।
3 / 1 / 18 एतान्येवानादेशे विकल्पेन क्रियेरन्।।
3 / 1 / 19 एनःसु गुरूषु गुरूणि लघुषु लघूनि।।
3 / 1 / 20 कृच्छातिकृच्छ्रौ चान्द्रायणमिति सर्वप्रायश्चित्तं ।।
तृतीयप्रश्ने प्रथमोऽध्यायः।।
अथ तृतीयेप्रश्ने द्वितीयोऽध्यायः
3 / 2 / 1 त्यजेत्पितरं राजघातकं शूद्रयाजकं शूद्रार्थयाजकं वेदविप्लावकं भ्रूणहनं यश्चान्त्यावसायिभिः सह संवसेदन्त्यावसायिन्यां वा।।
3 / 2 / 2 तस्य विद्यागुरून्योनिसंबन्धांश्च संनिपात्य सर्वाण्युदकादीनि प्रेतकार्याणि कुर्युः।।
3 / 2 / 3 पात्रं चास्य विपर्यस्येयुः ।।
3 / 2 / 4 दासः कर्मकरो वाऽवकरादमेध्यपात्रमानीय दासीघटात्पूरयित्वा दक्षिणामुखो यदा विपर्यस्येदमुकमनुदकं करोमीति नामग्राहम्।।
3 / 2 / 5 तं सर्वेऽन्वालभेरन्प्राचीनावीतिनो मुक्तशिखाः।।
3 / 2 / 6 विद्यागुरवो योनिसंबन्धाश्च वीक्षेरन्।।
3 / 2 / 7 अप उपस्पृश्य ग्रामं प्रविशन्ति।।
3 / 2 / 8 अत उत्तरं तेन संभाष्य तिष्ठेदेकरात्रं जपन्सावित्रीमज्ञानपूर्वम्।।
3 / 2 / 9 ज्ञानपूर्वं च त्रिरात्रम्।।
3 / 2 / 10 यस्तु प्रायश्चित्तेन शुध्येत्तस्मिञ्शुद्धे शातकुम्भमयं पात्रं पुण्यतमाद्ध्रदात्पूरयित्वा स्रवन्तीभ्यो वा तत एनमप उपस्पर्शयेयुः।।
3 / 2 / 11 अथास्मै तत्पात्रं दद्युस्ततसंप्रतिगृह्य जपेच्छान्ता द्यौः शान्ता पृथिवी शान्तं शिवमन्तरिक्षं यो रोचनस्तमिमं गृह्णामीति।।
3 / 2 / 12 एतैर्युजुर्भिः पावमानीभिस्तरत्समन्दीभिः कूष्माण्ैश्चाऽऽज्यं जुहुयाद्धिरण्यं ब्राह्मणाय दद्यात्।।
3 / 2 / 13 गां वा।।
3 / 2 / 14 आचार्याय च।।
3 / 2 / 15 यस्य तु प्राणान्तिकं प्रायश्चितं स मृतः शुध्येत्।।
3 / 2 / 16 सर्वाण्येव तस्मिन्नुदकादीनी प्रेतकर्माणि कुर्युः।।
3 / 2 / 17 एतदेव शान्त्युदकं सर्वेषूपपातकेषु।।
तृतीयप्रश्ने द्वितीयोऽध्यायः।।
अथ तृतीयेप्रश्ने तृतीयोऽध्यायः
3 / 3 / 1 ब्रह्महसुरापगुरुतल्पगमादृपितृयोनिसंबन्धागस्तेननास्तिकानिन्दितकर्माभ्यासिपतितात्याग्यपतितत्यागिनः पतिताः।।
3 / 3 / 2 पातकसंयोजकाश्च।।
3 / 3 / 3 तैश्चाब्दं समाचरन्।।
3 / 3 / 4 द्विजातिकर्मभ्यो हानिः पतनम्।।
3 / 3 / 5 तथा परत्र चासिद्धिः।।
3 / 3 / 6 तमेके नरकम्।।
3 / 3 / 7 त्रीणि प्रथमान्यनिर्देश्यान्यनु।।
3 / 3 / 8 न स्त्रीष्वगुरुतल्पं पततीत्येके।।
3 / 3 / 9 भ्रूणहानि हूनवर्णसेवायां च स्त्री पतति।।
3 / 3 / 10 कौटसाक्ष्यं राजगामि पैशुनं कुरोरनृताभिशंसनं महापातकसमानि।।
3 / 3 / 11 अपङ्क्यानां प्राग्दुर्बालाद् गोहन्तृब्रह्मघ्नतन्मन्त्रकृदवकीर्णिपतितसावित्रीकेषूपपातकम्।।
3 / 3 / 12 अज्ञानादनध्यापनादृत्विगाचार्यौ पतनीयसेवायां च हेयौ।।
3 / 3 / 13 अन्यत्र हानात्पतति।।
3 / 3 / 14 तस्य च प्रतिग्रहीत्येके।।
3 / 3 / 15 न कर्हिचिन्मातापित्रोरवृत्तिः।।
3 / 3 / 16 दायं तु न भजेरन्।।
3 / 3 / 17 ब्राह्मणाभिशंसने दोषस्तावान्।।
3 / 3 / 18 द्विरनेनसि।।
3 / 3 / 19 दुर्बलहिंसायां च विमोचने शक्तश्चेत्।।
3 / 3 / 20 अभिक्रुद्धावगोरणं ब्राह्मणस्य वर्षशतमस्वर्ग्यम्।।
3 / 3 / 21 निघाते सहस्रम्।।
3 / 3 / 22 लोहितदर्शने यावतस्तत्प्रस्कन्द्य पांसून्संगृह्णीयात्।।
तृतीयप्रश्ने तृतीयोऽध्यायः।।
अथ तृतीयेप्रश्ने चतुर्थोऽध्यायः
3 / 4 / 1 प्रायश्चित्तम्।।
3 / 4 / 2 अग्नौ सक्तिर्ब्रह्मघ्नस्त्रिरवच्छातस्य ।।
3 / 4 / 3 लक्ष्यं वा स्याज्जन्ये शस्त्रभृताम्।।
3 / 4 / 4 खट्वाङ्गकपालपाणिर्वा द्वादश संवत्सरान्ब्रह्मचारी भैक्षाय ग्रामं प्रविशेत्कर्माऽऽचक्षाणः।।
3 / 4 / 5 पथोऽपक्रामेत्संदर्शनादार्यस्य।।
3 / 4 / 6 स्थानासनाभ्यां विहरन्सवनेषूदकोपस्पर्शी शुध्येत्।।
3 / 4 / 7 प्रणलाभे वा तन्निमित्ते ब्राह्मणस्य।।
3 / 4 / 8 द्रव्यापचये त्र्यवरं प्रतिराद्धः।।
3 / 4 / 9 अश्वमेधावभृथे वा ।।
3 / 4 / 10 अन्ययज्ञेऽप्यग्निष्टुदन्तश्चेत्।।
3 / 4 / 11 सृष्टश्चेद् ब्राह्मणबधेऽहत्वाऽपि।।
3 / 4 / 12 आत्रेय्याश्चैवम्।।
3 / 4 / 13 गर्भे चाविज्ञाते।।
3 / 4 / 14 राजन्यवधे षड्वार्षिकं प्राकृतं ब्रह्मचर्यमृषभैकसहस्राश्च गां दद्यात्।।
3 / 4 / 15 वैश्ये तु त्रैवार्षिकमृषभैकशताश्च गा दद्यात्।।
3 / 4 / 16 शूद्रं सवत्सरमृषभैकादशाश्च गा दद्यात्।।
3 / 4 / 17 अनात्रेय्यां चैवम्।।
3 / 4 / 18 गां च वैश्यवत्।।
3 / 4 / 19 मण्जूकनकुलकाकबिम्बदहरमूषकश्वहिंसासु च।।
3 / 4 / 20 अस्थव्वतां सहस्रं हत्वा।।
3 / 4 / 21 अनस्थिमतामनडुद्भारे च।।
3 / 4 / 22 अपि वाऽस्थन्वतामेकैकस्मिन्किंचिद्दद्यात्।।
3 / 4 / 23 षण्ढे पलालभारः सीसमाषश्च।।
3 / 4 / 24 वराहे घृतघटः।।
3 / 4 / 25 सर्पे लोहदण्डः।।
3 / 4 / 26 ब्रह्मबन्ध्वां चलनायां नीलः।।
3 / 4 / 27 वैशिके न किंचित्।।
3 / 4 / 28 तल्पान्नधनलाभवधेषु पृथगवर्षाणि।।
3 / 4 / 29 द्वे परदारे।।
3 / 4 / 30 त्रीणि श्रोत्रियस्य।।
3 / 4 / 31 द्रव्यलाभे चोत्सर्गः।।
3 / 4 / 32 यथास्थानं वा गमयेत्।।
3 / 4 / 33 प्रतिषिद्धमन्त्रयोगे सहस्रवाकश्चेत्।।
3 / 4 / 34 अग्नन्युत्सादिनिराकृत्युपपातकेषु चैवम्।।
3 / 4 / 35 स्त्री याऽतिचारिणी गुप्ता पिण्डं तु लभेत।।
3 / 4 / 36 अमानुषीषु गोवर्जं स्त्रीकृते कूष्माण्डैर्घृतहोमो घृतहोमः।।
तृतीयप्रश्ने चतुर्थोऽध्यायः।।
अथ तृतीयप्रश्ने पञ्चमोऽध्यायः
3 / 5 / 1 सुरापस्य ब्राह्मणस्योष्णामासिञ्चेयुः सुरामास्ये मृतः शुध्येत्।।
3 / 5 / 2 अमत्या पाने पयो घृतमुदकं वायुं प्रतित्र्यहं तप्तानि स कृच्छ्रस्तोऽस्य संस्कारः।।
3 / 5 / 3 मूत्रपुरीषरेतसां च प्राशने।।
3 / 5 / 4 श्वापदोष्ट्रखराणां चाङ्गस्य।।
3 / 5 / 5 ग्राम्यकुक्कुटसूकरयोश्च।।
3 / 5 / 6 गन्धाघ्राणे सुरापस्य प्राणायामा घृतप्राशनं च।।
3 / 5 / 7 पूर्वैश्च दष्टस्य ।।
3 / 5 / 8 तप्ते लोहशयने गुरुतल्पगः शयीत।।
3 / 5 / 9 सूर्मीं वा श्लिष्येज्ज्वलन्तीम्।।
3 / 5 / 10 लिङ्गं वा सवृषणमुत्कृत्याञ्जलावाधाय दक्षिणाप्रतीचीं व्रजेदजिह्ममाशरीरनिपातात्।।
3 / 5 / 11 मृतः शुध्येत्।।
3 / 5 / 12 सखीसयोनिसगोत्राशिष्यभार्यासु स्नुषायां गवि च गुरु तल्पसमः।।
3 / 5 / 13 अवकर इत्येके।।
3 / 5 / 14 श्वभिरादयेद्राजा निहीनवर्णगमने स्त्रियं प्रकाशम्।।
3 / 5 / 15 पुमांसं घातयेत्।।
3 / 5 / 16 यथोक्तं वा।।
3 / 5 / 17 गर्दभेनावकीर्णी निर्ऋतिं चतुष्पथे यजेत्।।
3 / 5 / 18 तस्याजिनमूर्ध्ववालं परिधाय लोहितपात्रः सप्तगृहान्भैक्षं चरेत्कर्माऽऽचक्षाणः।।
3 / 5 / 19 संवत्सरेण शुध्येत्।।
3 / 5 / 20 रेतःस्कन्दने भये रोगे स्वप्नेऽग्नीन्धनभैक्षचरणानि सप्तरात्रमकृत्वाऽऽज्यरोमः समिधो वा रेतस्याभ्याम्।।
3 / 5 / 21 सूर्याभ्युदितो ब्रह्मचारी तिष्ठेदहरभुञ्जानोऽभ्यस्तमितश्च रात्रिं जपन्सावित्रीम्।।
3 / 5 / 22 अशुचीं दृष्ट्वाऽऽदित्यमीक्षेत प्राणायां कृत्वा।।
3 / 5 / 23 अभोज्यभोजनेऽमेध्यप्राशने वा निष्पुरीषीभावः।।
3 / 5 / 24 त्रिरात्रावरमभोजनम्।।
3 / 5 / 25 सप्तरात्रं वा स्वयंशीर्णान्युपभुञ्जानः फलान्यनतिक्रामन्।।
3 / 5 / 26 प्राक्पञ्चनखेभ्यश्छर्दनं घृतप्राशनं च।।
3 / 5 / 27 आक्रोशानृतहिंसासु त्रिरात्रं परमं तपः।।
3 / 5 / 28 सत्यवाक्ये वारूणीमानवीभिर्होमः।।
3 / 5 / 29 विवाहमैथुननर्मार्तसंयोगेष्वदोषमेकेऽनृतम्।।
3 / 5 / 30 न तु खलु गुर्वर्थेषु।।
3 / 5 / 31 सप्त पुरुषानितश्च परतश्च हन्ति मनसाऽपि गिरोरनृतं वदन्नल्पेष्वप्यर्थेषु।।
3 / 5 / 32 अन्त्यावसायिनीगमने कृच्छ्राब्दः।।
3 / 5 / 33 अमत्या द्वादशरात्रः।।
3 / 5 / 34 उदक्यागमने त्रिरात्रः।।
तृतीयप्रश्ने पञ्चमोऽध्यायः।।
अथ तृतीयप्रश्ने षष्ठोऽध्यायः
3 / 6 / 1 रहस्यं प्रायश्चित्तमविष्यादोषस्य।।
3 / 6 / 2 चतुर्ऋचं तरत्समन्दीत्यप्सु जपेदप्रतिग्राह्यं प्रतिजिघृक्षन्प्रतिगृह्य वा।।
3 / 6 / 3 अभोज्यं बुभुक्षमाणः पृथिवीमावपेत्।।
3 / 6 / 4 ऋत्वन्तरारमण उदकोपस्पर्शनाच्छुध्दिमेके।।
3 / 6 / 5 स्त्रीषु।।
3 / 6 / 6 पयोव्रतो वा दशरात्रं घृतेन द्वितीयमद्भिस्तृतीयं दिवादिष्वेकभक्तिको जलक्लिन्नवासा लोमानि नखानि त्वचं मांसं शोणितं स्नाय्वस्थि मज्जानमिति रोमा आत्मनो मुखे मृत्योरास्ये जुरोमीत्यन्ततः सर्वेषां प्रायश्चित्तं भ्रूणहत्यायाः।।
3 / 6 / 7 उक्तो नियमः।।
3 / 6 / 8 अग्ने त्वं पारयेति महाव्याहृतिभिर्जुहुयात्कूष्माण्डैश्चाऽऽज्यम्।।
3 / 6 / 9 तद्व्रत एव वा ब्रह्महत्यासुरापास्तेयगुरुतल्पेषु प्राणायामैस्तान्तोऽघमर्षणं जपन्सममश्वमेधावभृथेनेदं च प्रायश्चित्तम्।।
3 / 6 / 10 सावित्रीं वा सहस्रकृत्व आवर्तयन्पुनीते हैवाऽऽत्मानम्।।
3 / 6 / 11 अन्तर्जले वाऽघमर्षणं त्रिरावर्तयन्सर्वपापेभ्यो विमुच्यते।।
तृतीयप्रश्ने षष्ठोऽध्यायः।।
अथ तृतीयप्रश्ने सप्तमोध्यायः
3 / 7 / 1 तदाहुः कतिधाऽवकीर्णी प्रविशतीति।।
3 / 7 / 2 मरुतः प्राणेनेन्द्रं बलेन बृहस्पतिं ब्रह्मवर्चसेनाग्निमिवेतरेण सर्वेणेति।।
3 / 7 / 3 सोऽमावास्यायां निश्यग्निमुपसमाधाय प्रायश्चित्ताज्याहुतीर्जुहोति।।
3 / 7 / 4 कामावकीर्णोऽस्म्यवकीर्णोऽस्मि कामकामाय स्वाहा। कामाभिदुग्धोऽस्म्यभिदुग्धोऽस्मि कामकामाय स्वाहेति समिधमाध्यानुपर्युक्ष्य यज्ञवास्तु कृत्वोपोत्थाय समासिञ्चत्वित्येतया त्रिरुपतिष्ठेत।।
3 / 7 / 5 त्रय इमे लोका एषां लोकानामभिजित्या अभिक्रान्त्या इति।।
3 / 7 / 6 एतदेवैकेषां कर्माधिकृत्य योऽप्रयत इव स्यात्स इत्थं जुहुयादित्थमनुमन्त्रयेत वरो दक्षिणेति प्रायश्चित्तमविशेषात्।।
3 / 7 / 7 अनार्जवपैशुनप्रतिषिद्धाचारानाद्यप्राशनेषु शूद्रायां च रेतः सिक्त्वाऽयोनौ च दोषवति च कर्मण्यपि संधिपूर्वेऽब्लिङ्गाभिरप उपस्पृशेद्वारुणीभिरन्यैर्वा पवित्रैः।।
3 / 7 / 8 प्रतिषिद्धवाङ्मनसापचारे व्याहृतयः पञ्च स्तायन्ताः।।
3 / 7 / 9 सर्वास्वपो वाऽऽचामेदहश्च माऽऽदित्यश्च पुनात्विति प्राता रात्रिश्च मा वरुणश्च पुनात्विति सायम्।।
3 / 7 / 10 अष्टौ वा समिध आदध्याद्देवकृतस्येति हुत्वैव सर्वसमादेन सो मुच्यते।।
तृतीयप्रश्ने सप्तमोऽध्यायः।।
तृतीये प्रश्नेऽष्टमोऽध्यायः
3 / 8 / 1 अथातः कृच्छ्रान्व्यख्यास्यामः।।
3 / 8 / 2 हविष्यान्प्रातराशान्भुक्त्वा तिस्रो रात्रीर्नाश्नीयात्।।
3 / 8 / 3 अथापरं त्र्यहं नक्तं भुञ्जीत।।
3 / 8 / 4 अथापरं त्र्यहं कंचन याचेत।।
3 / 8 / 5 अथापरं त्र्यह्युंपवसेत्।।
3 / 8 / 6 तिष्ठेदहनि रात्रावासीत क्षिप्रकामः।।
3 / 8 / 7 सत्यं वदेत्।।
3 / 8 / 8 अनार्यैर्न संभाषेत।।
3 / 8 / 9 रौरवयौधाजपे नित्यं प्रयुञ्जीत।।
3 / 8 / 10 अनुसवमुदकोपस्पर्शनमापो हि ष्ठेति तिसृभिः पवित्रवतीभिर्मार्जयीत हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका इत्यष्टाभिः।।
3 / 8 / 11 अथोदकतर्पणम्।।
3 / 8 / 12 नमोऽहमाय मोहमाय मंहमाय धुन्नते तापसाय पुनर्वसवे नमः। नमो मौञ्ज्यायोर्व्याय बसुविन्दाय सार्वविन्दाय नमः। नमः पार्य सुपार्य महापापाय पारयिष्णवे नमः। नमो रुद्राय पशुपतये महते देवाय त्र्यम्बकायैकचरायाधिपतये हराय शर्वायेशानायोग्राय वजिणं घृणिने कपर्दिने नमः। नमः सूर्यायाऽऽदित्याय नमः। नमः नीलग्रीवाय शितिकण्ठाय नमः। नमः कृष्णाय पिङ्गलाय नमः। नमः ज्येष्ठाय श्रेष्ठाय वृद्धायेन्द्र्य हरिकेशायोर्ध्वंरेतसे नमः। नमः सत्याय पावकाय पावकवर्णाय कामाय कामरूपिणे नमः। नमो दीप्ताय दीप्तरूपिणे नमः। नमस्तीक्ष्णाय तीक्ष्णरूपिणे नमः। नमः सोम्याय सुपुरुषाय महापुरुषाय मध्यमपुरुषायोत्तमपुरुषाय ब्रह्मचारिणे नमः। नमश्चन्द्रललाटाय कृत्तिवाससे नमः।।
3 / 8 / 13 एवा एवाऽऽज्याहुतयः।।
3 / 8 / 14 द्वादशरात्रस्यान्ते चरूं श्रपयित्वैताभ्यो देवताभ्यो जुहुयात्।।
3 / 8 / 15 अग्नये स्वाहा सोमाय स्वाहाऽग्नीषोमाब्यामिन्द्राग्निभ्यामिन्द्राय विश्वेभ्यो देवेभ्यो ब्रह्मणे प्रजापतयेऽग्नये स्विष्टकृत इति।।
3 / 8 / 16 ततो ब्राह्मणतर्पणम्।।
3 / 8 / 17 एतेनैवातिकृच्छ्रो व्याख्यातः।।
3 / 8 / 18 यावत्सकृदाददीत तावदश्नीयात्।।
3 / 8 / 19 अब्भक्षस्तृतीयः स कृच्छ्रातिकृच्छ्रः।।
3 / 8 / 20 प्रथमं चरित्वा शुचिः पूतः कर्मण्यो भवति।।
3 / 8 / 21 द्वितीयं चरित्वा यत्किंचिदन्यन्महापातकेभ्यः पापं कुरुते तस्मात्प्रमुच्यते।।
3 / 8 / 22 तृतीयं चरित्वा सर्वस्मादेनसो मुच्यते।।
3 / 8 / 23 अथैतांस्त्रीन्कृच्छ्रांश्चरित्वा सर्वेषु वेदिषु स्नातो भवति सर्वैरेदेवैर्ज्ञातो भवति।।
3 / 8 / 24 यश्चैवं वेद।।
तृतीयप्रश्नेऽष्टमोऽध्यायः।।
अथ तृतीयप्रश्वे नवमोऽध्यायः
3 / 9 / 1 अथातश्चान्द्रायणम्।।
3 / 9 / 2 तस्योक्तो विधिः कृच्छ्रे।।
3 / 9 / 3 वपनं व्रतं चरेत्।।
3 / 9 / 4 श्वोभूतां पौर्णमासीमुपवसेत्।।
3 / 9 / 5 आप्यायस्व सं ते पयांसि नवो नव इति चैताभिस्तर्पणमाज्यहोमो हविषश्चानुमन्त्रणमुपस्थानं चन्द्रमसः।।
3 / 9 / 6 यद्देवा देवहैडनमिति चतसृभिर्जुहुयात्।।
3 / 9 / 7 देवकृतस्येति चान्ते समिद्भिः।।
3 / 9 / 8 ओं भूर्भुवः स्वस्तपः सत्यं यशः श्रीरूर्गिडौजस्तेजो वचः पुरुषो धर्मः शिव इत्येतैर्ग्रासानुमन्त्रणं प्रतिमन्त्रं मनसा।।
3 / 9 / 9 नमः स्वाहेति वा सर्वान्।।
3 / 9 / 10 ग्रासप्रम्ाणमास्याविकारेण।।
3 / 9 / 11 चरुभैक्षसक्तुकणपावकशाकपयोदधिघ-तमूलफलोदकानिहवींष्युत्तरोत्तरं प्रशस्तानि।।
3 / 9 / 12 पौर्णमास्यां पञ्चदश ग्रासान्भुक्त्वैकापचयेनापरपक्षमश्नीयात्।।
3 / 9 / 13 अमावास्ययामुपोष्यैकोपचयेन पूर्वपक्षम्।।
3 / 9 / 14 विपरीतमेकेषाम्।।
3 / 9 / 15 एवं चान्द्रायणो मासः।।
3 / 9 / 16 एवमाप्त्वा विपापो विपाप्मा सर्वमेनो हन्ति।।
3 / 9 / 17 द्वितीयमाप्त्यवा दश पूप्वान्दश परानात्मावं चैकरविंशं पंक्तिं च पुनाति।।
3 / 9 / 18 संवत्सरं चाऽऽप्त्वा चन्द्रमसः सलोकतामाप्नोति सलोकतामप्नोति।।
तृतीयप्रश्ने नवमोऽध्यायः।।
अथ तृतीयप्रश्ने दशमोऽध्यायः
3 / 10 / 1 ऊर्ध्वं पितुः पुत्रा रिक्थं भजेरन्।।
3 / 10 / 2 निवृत्ते रजसि मातुर्जीवति चेच्छति।।
3 / 10 / 3 सर्वं वा पूर्वजः स्वेतरान्बिभृयात्पितृवत्।।
3 / 10 / 4 विभागे तु धर्मवृद्धिः।।
3 / 10 / 5 विंशतिभागो ज्येष्ठस्य मिथुनमुभयतोदद्युक्तो रथो गोवृषः।।
3 / 10 / 6 काणखोरकूटवणेटा मध्यमस्यानेकाश्चेत्।।
3 / 10 / 7 अविर्धान्यायसी गृहमनोयुक्तं चतुष्पदां चैकैकं यवीयसः।।
3 / 10 / 8 समधा चेतरत्सर्वम्।।
3 / 10 / 9 एकैकं वा धनरूपं काम्यं पूर्वः पूर्वो लभते।।
3 / 10 / 10 दशकं पशूनाम्।।
3 / 10 / 11 नैकशफद्विपदाम्।।
3 / 10 / 12 ऋषभोऽधिको ज्येष्ठस्य।।
3 / 10 / 13 ऋषभषोडशा ज्यैष्ठिनेयेन यवीयसाम्।।
3 / 10 / 14 समधा वाऽज्यैष्ठिनेयन यवीयसाम्।।
3 / 10 / 15 प्रतिमातृ वा स्वस्ववर्गै भागविशेषः।।
3 / 10 / 16 पितोत्सृजेत्पुत्रिकामनपत्योऽग्निं प्रजापतिं चेष्ट्वाऽस्मदर्थमपत्यमिति संवाद्यं।।
3 / 10 / 17 अभिसंधिमात्रात्पुत्रिकेत्येकेषाम्।।
3 / 10 / 18 तत्संशयान्नोपयच्छेदभ्रातृकाम्।।
3 / 10 / 19 पिण्डगोत्रर्षिसंबन्धा रिक्थं भजैरन्स्त्री वाऽनपत्यस्य।।
3 / 10 / 20 बीजं वा लिप्सेत।।
3 / 10 / 21 देवरवत्यामन्यजातमभागम्।।
3 / 10 / 22 स्त्रीधनं दुहितॄणामप्रत्तानामप्रतिष्ठितानां च।।
3 / 10 / 23 भगिनीशुल्कः सोदर्याणामूर्ध्वं मातुः।।
3 / 10 / 24 पूर्वं चैके।।
3 / 10 / 25 असंसृष्टिविभागः प्रेतानां ज्येष्ठस्य ।।
3 / 10 / 26 संसृष्टिनि प्रेते संसृष्टी रिक्थभाक्।।
3 / 10 / 27 विभक्तजः पित्र्यमेव।।
3 / 10 / 28 स्वयमर्जितमवैद्येभ्यो वैद्यः कामं न दद्यात्।।
3 / 10 / 29 अवैद्याः समं विभजेरन्।।
3 / 10 / 30 पुत्रा औरसक्षेत्रजदत्तकृत्रिमगूढोत्पन्नापविद्धारिक्थभाजः।।
3 / 10 / 31 कानीनसहोढपौनर्भवपुत्रिकापुत्रस्वयंदत्तक्रीता गोत्रभाजः।।
3 / 10 / 32 चतुर्थांशिन औरसाद्यभावे।।
3 / 10 / 33 ब्राह्मणस्य राजन्यापुत्रो ज्येष्ठो गुणसंपन्नस्तुल्यभाक्।।
3 / 10 / 34 ज्येष्टांशहीनमन्यत्।।
3 / 10 / 35 राजन्यावैश्यापुक्षसमवाये यथा स ब्राह्मणीपुत्रेण।।
3 / 10 / 36 क्षत्रियाच्चेत्।।
3 / 10 / 37 शूद्रापुत्रोऽप्यनपत्यस्य शुश्रूषुश्चेल्लभेत वृत्तिमूलमन्तेवासिविधिना।।
3 / 10 / 38 सवर्णापुत्रोऽप्यन्याय्यवृत्तो न लभेतैकेषाम्।।
3 / 10 / 39 श्रोत्रिया ब्राह्मणस्यानपत्यस्य रिक्थं भजेरन्।।
3 / 10 / 40 राजेतरेषाम्।।
3 / 10 / 41 जडक्लीबौ भर्तव्यौ।।
3 / 10 / 42 अपत्यं जडस्य भागार्हम्।।
3 / 10 / 43 शूद्रापुत्रवत्प्रतिलोमास्तु।।
3 / 10 / 44 उदकयोगक्षेमकृतान्नेष्वविभागः।।
3 / 10 / 45 स्त्रीषु च संयुक्तासु।।
3 / 10 / 46 अनाज्ञाते दशावरैः शिष्टैरूहविद्भिरलुब्धैः प्रशस्तं कार्यम्।।
3 / 10 / 47 चत्वारश्चरुर्णां पारगा वेदानां प्रागुत्तमात्त्रय आश्रमिणः पृथग्धर्मविदस्त्रय एतान्दशावरान्परिषदित्याचक्षते।।
3 / 10 / 48 असंभवे त्वेतेषां श्रोत्रियो वेदविच्छिष्टो विप्रतिपत्तौ यदाह।।
3 / 10 / 49 यतोऽयमप्रभवो भूतानां हिंसानुग्रहयोगेषु।।
3 / 10 / 50 धर्मिणां विशेषेण स्वर्गं लोकं धर्मविदाप्नोति ज्ञानाभिनिवेशाभ्याम्।।
3 / 10 / 51 इति धर्मो धर्मः।।
तृतीयप्रश्ने दशमोऽध्यायः।।
इति गौतमधर्मसूत्रं सम्पूर्णम्।।