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उमास्वामीकृत तत्त्वार्थसूत्राणि

तत्त्वार्थ सूत्र 

 

प्रथमोऽध्यायः द्वितीयोऽध्यायः तृतीयोऽध्यायः चतुर्थोऽध्यायः पञ्चमोऽध्यायः षष्ठोऽध्यायः सप्तमोऽध्यायः अष्टमोऽध्यायः नवमोऽध्यायः दशमोऽध्यायः

अथ प्रथमोऽध्यायः।।

1 / 1      सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः।।

1 / 2      तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।।

1 / 3      तन्निसर्गादधिगमाद्वा।।

1 / 4      जीवजीवास्रव बन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्।।

1 / 5      नामस्थापना द्रव्य भावतस्तन्न्यासः।।

1 / 6      प्रमाणनयैरधिगमः।।

1 / 7      निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरण स्थितिविधानतः।।

1 / 8      सत्संख्याक्षेत्र स्पर्शनकालान्तर भावाल्पबहुत्त्वैश्च।।

1 / 9      मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलानि ज्ञानम्।।

                                 

1 / 10  तत्प्रमाणे।।

1 / 11  आद्ये परोक्षम्।।

1 / 12  प्रत्यक्षमन्यत्।।

1 / 13  मतिःस्मृतिः संज्ञाचिन्ताभिनिबोध इत्यानर्थान्तरम्।।

1 / 14  तदिन्द्रयानिन्द्रियनिमित्तम्।।

1 / 15  अवग्रहेहावाय धारणाः।।

1 / 16  बहुबहुविधक्षिप्रानिः सृतानुक्त ध्रुवाणां सेतराणाम्।।

1 / 17  अर्थस्य।।

1 / 18  व्यञ्जनस्यावग्रहः।।

1 / 19  न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्।।

1 / 20  श्रुतं मतिपूर्वं ह्यनेकद्वादशभेदम्।।

                             

1 / 21  भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम्।।

1 / 22  क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्।।

1 / 23  ऋजुविपुलमती मनः पर्ययः।।

1 / 24  विशुद्ध्यप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः।।

1 / 25  विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयोऽवधिमनः पर्यययोः।।

1 / 26  मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वस्रवपार्यायेषु।।

1 / 27  रूपिष्ववधेः।।

1 / 28  तदनन्तभागे मनः पर्यस्य।।

1 / 29  सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य।।

1 / 30  एकादीनि भाज्यानियुगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः।।

1 / 31  मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च।।

1 / 32  सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्।।

1 / 33  नैगमसंग्रहव्यवहारर्जु सूत्रशब्द समभिरूढैवंभूता नयाः।।

इति प्रथमोऽध्यायः।।

   

                             

अथ द्वितीयोऽध्यायः

2  / 1      औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीलस्य स्वतत्त्वमौदयिक पारिणामिको च।।

2  / 2      द्विनवाष्टादशैकविंशातित्रिभेदा यथाक्रमम्।।

2  / 3      सम्यक्त्व चारित्रे।।

2  / 4      ज्ञानदर्शन दानलाभभोगोप भोगवीर्याणि च।।

2  / 5      ज्ञानाज्ञान दर्शन लब्ध्यश्चतुस्त्रि त्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्व चारित्र संयमासंयमाश्च।।

2  / 6      गतिकषायलिङ्ग मिथ्यादर्शना ज्ञानासंयता सिद्ध लेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैकषड्भेदाः।।

2  / 7      जीवभव्याभव्यत्वानि च।।

2  / 8      उपयोगो लक्षणम्।।

2  / 9      स द्विविधोऽष्टचतुर्भेद।।

2  / 10  संसारिणो मुक्ताश्च।।

2  / 11  समनस्कामनस्काः।।

2  / 12  संसारिणस्त्रसस्थावराः।।

2  / 13  पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः।।

2  / 14  द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः।।

2  / 15  पंचेद्रियाणि।।

2  / 16  द्विविधानि।।

                             

2  / 17  निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्।।

2  / 18  लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्।।

2  / 19  स्पर्शनरसन घ्राणचक्षुःश्रोत्राणि।।

2  / 20  स्पर्शनरसन्गन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः।।

2  / 21  श्रुतमनिन्द्रियस्य।।

2  / 22  वनस्पत्यन्तानामेकम्।।

2  / 23  कृमिपिपीलिका भ्रमर मनुष्यादीनामेकैक वृद्धानि।।

2  / 24  संज्ञिनः समनस्काः।।

2  / 25  विग्रहगतौ कर्मयोगः।।

2  / 26  अनुश्रेणि गतिः।।

2  / 27  अविग्रहा जीवस्य।।

2  / 28  विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्भ्यः।।

2  / 29  एक समयाविग्रहा।।

2  / 30  एकं द्वौ त्रीन्वानाहारकः।।

2  / 31  संमूच्छंनगर्भौपरादा जन्म।।

2  / 32  सचित्तशीतसंवृताःसेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः।।

2  / 33  जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः।।

                             

2  / 34  देवनारकाणामुपपादः।।

2  / 35  शेषाणां संमबर्च्छनम्।।

2  / 36  औदारिकवैक्रियिका हारकदैजसकार्मणानि शरीराणि।।

2  / 37  परं परं सूक्ष्मम्।।

2  / 38  प्रदेशतोऽसंख्येयगुणंप्राक् तैजसात्।।

2  / 39  अनन्तगुणे परे।।

2  / 40  अप्रतीघाते।।

2  / 41  अनादिसंबन्धे च।।

2  / 42  सर्वस्य।।

2  / 43  तदादीनि भाज्यानियुगपदेकस्मिन्ना चतुर्भ्यः।।

2  / 44  निरूपभोगमन्त्यम्।।

2  / 45  गर्भसमबर्च्छनजमाद्यम्।।

2  / 46  औपपादिकं वैग्रियिकम्।।

2  / 47  लब्धिप्रत्ययं च।।

2  / 48  तैजसमपि।।

2  / 49  शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव।।

2  / 50  वानकसंमूर्च्छिनो नपुंसकानि।।

                             

2  / 51  न देवाः।।

2  / 52  शेषस्त्रवेदाः।।

2  / 53  औपपादिक चरमोत्तमदेहाऽसंख्येय वर्षायुषोनवर्त्यायुषः।।

इति द्वितीयोऽध्यायः।।

अथ तृतीयोऽध्यायः

3  / 1        रत्नशर्कराबालुकापंक धूमतमोमहातमः प्रभा भूमयो घनाम्बुवाताकाश प्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः।।

3  / 2        तासु त्रिंशत्पंचविंशति पंचदशदशत्रिपंचोनैकनरकशतसहस्राणि पंच चैव यथाक्रमम्।।

3  / 3        नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणाम देहवेदनाविक्रियाः।।

3  / 4        परस्परोदीरितदुःखाः।।

3  / 5        संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः।।

3  / 6        तेष्वेकत्रि सप्त दशसप्तदशत्दवा विंशति त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमासत्त्वानां परा स्थितः।।

3  / 7        जम्बूद्वीप लवणोदादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्रा।।

3  / 8        द्विर्द्विर्विष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः।।

3  / 9        तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्तो योजनशतसहस्रविषकम्भो जम्बूद्वीपः।।

3  / 10    भरतहेमवतहरिविदेह रम्यक हैरण्ेयवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि।।

3  / 11    तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मि शिखरिणो वर्णधरपर्वताः।।

3  / 12    हेमार्जुनतपनीय वैडूर्यरजत रेममयाः।।

3  / 13    मणिविचिक्षपर्श्वा उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः।।

                         

3  / 14    पद्ममहापद्मतिगिञ्छकेसरि महापुण्डरीकपुण्जरीकाहृदास्तेषामुपरि।।

3  / 15    प्रथमो योजनसहस्रायामस्तदर्धविषकम्भो ह्रदः।।

3  / 16    दशयोजनावगाहः।।

3  / 17    तन्मध्ये योजनं पुष्करम्।।

3  / 18    तद्द्विगुणद्विगुणाह्रदः पुष्कराणि च।।

3  / 19    तन्निवासिन्यो देव्यः श्री ह्रीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयः ससामानिक परिषत्काः।।

3  / 20    गंगासिन्धु रोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तै सीतासीतोदानारीनरकान्ता सुवर्ण रूप्यकूला रक्तारक्तोदाः सरितस्तन्मध्यगाः।।

3  / 21    द्वयोर्द्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः।।

3  / 22    शेषास्त्वपरगाः।।

3  / 23    चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गंगासिन्ध्वादयो नद्यः।।

3  / 24    भरतः षड्विंशतिपंचयोजनशतविस्तारः षट्चैकोनविंशतिभागायोजनस्य।।

3  / 25    तद्द्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहान्ताः।।

3  / 26    उत्तर दक्षिणतुल्याः।।

3  / 27    तथोत्तरः।।

3  / 28    विदेहेषु संख्येयकालाः।।

3  / 29    भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवतिशतभागः।।

                             

3  / 30    द्विर्धातकीखण्डे।।

3  / 31    पुष्कारर्धे च।।

3  / 32    प्राङ्मानुषोत्तरान्मनुष्याः।।

3  / 33    आर्या म्लेच्छाश्च।।

3  / 34    भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः।।

3  / 35    नृस्थितीपरावरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्त।।

3  / 36    तिर्यग्योनिजानां च।।

इति तृतीयोऽध्यायः।।

अथ चतुर्थोऽध्यायः

4  / 1      देवाश्चतुर्णिकायाः।।

4  / 2      आदितस्त्रिषु पीतानत्लेश्याः।।

4  / 3      दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः।।

4  / 4      इन्द्रसामानिक त्रायस्त्रिशपारिषदात्मरक्ष लोकपालीनाक प्रकीर्ण काभियोग्य किल्बिषि काश्चैकशः।।

4  / 5      त्रायस्त्रिंशलोकपालवर्ज्या व्यन्तरज्योतिष्काः।।

4  / 6      पूर्वयोर्द्वीन्द्रा।।

4  / 7      कायप्रवीचाराः।।

4  / 8      शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनः प्रवचाराः।।

                             

4  / 9      परेऽप्रवचीराः।।

4  / 10  भवनवासिनोऽसुरनाविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोद धिद्वीपदिक्कुमाराः।।

4  / 11  व्यन्तराः किन्नरकिंपुरुष महोरग गन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः।।

4  / 12  ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च।।

4  / 13  मेरुप्रदिक्षिणा नित्यगतयो नृलोके।।

4  / 14  तत्कृतः कालविभागः।।

4  / 15  बहिरवस्थिताः।।

4  / 16  वैमानिकाः।।

4  / 17  कल्पोपपन्नाः कल्पाताताश्च।।

4  / 18  उपर्युपरि।।

4  / 19  सौधर्मैशानसानत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मब्रह्मोत्तर लान्तवकापिष्ठ शुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेष्वानतप्राणयोरारणाच्युतयोर्नवसुग्रैवेयकेषु विजय वैजयन्त ययन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च।।

4  / 20  स्थिति प्रभावसुखद्युतलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिकाः।।

4  / 21  गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः।।

4  / 22  पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु।।

4  / 23  प्राग्ग्रैवेयकेभ्यः कल्पाः।।

4  / 24  ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकाः।।

                             

4  / 25  सारस्वतादित्य व ह्रयरुणगर्दतोयुषिताव्यावाधारिष्टाश्च।।

4  / 26  विजयादिषु द्विचरमाः।।

4  / 27  औपपादिक मनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः।।

4  / 28  स्थितिसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमार्द्ध हीनमिताः।।

4  / 29  सौधर्मेशालयोः सागरोपमेऽधिके।।

4  / 30  सानत्कुमार माहेन्द्रयो सप्त।।

4  / 31  त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदश पञ्चदशभिरधिकानि तु।।

4  / 32  आरणाच्युततादूर्ध्वमेकैकेननवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च।।

4  / 33  अपरापल्योपममधिकम्।।

4  / 34  परतः परतः पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा।।

4  / 35  नारकाणां च द्वितीयादिषु।।

4  / 36  दशवर्षज्ञसहस्राणि प्रथमायाम्।।

4  / 37  भवनेषु च।।

4  / 38  व्यन्तराणां च।।

4  / 39  परापल्योपममधिकम्।।

4  / 40  ज्योतिष्कणां च।।

4  / 41  तदष्टभागोऽपरा।।

                             

4  / 42  लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम्।।

इति चतुर्थोऽध्यायः।।

अथ पञ्चमोऽध्यायः।।

5  / 1    अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः।।

5  / 2    द्रव्याणि।।

5  / 3    जीवाश्च।।

5  / 4    नित्यावस्थितान्यरूपाणि।।

5  / 5    रूपिणः पुद्गलाः।।

5  / 6    आकाशादेकद्रव्याणि।।

5  / 7    निष्क्रियाणि च।।

5  / 8    असंख्योयाः प्रदेशा धर्माधर्मेकजीवानाम्।।

5  / 9    आकाशस्यानन्ताः।।

5  / 10                        संख्येयासंख्येयाश्च पुद्गलानाम्।।

5  / 11                        नाणोः।।

5  / 12                        लोकाकाशेऽवगाहः।।

5  / 13                        धर्माधर्मयोः कृस्ने।।

5  / 14                        एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम्।।

5  /

                             

 15                        असंख्येयभागादिषु जीवानाम्।।

5  / 16                        प्रदेशसंहार विसर्पाभ्या प्रदीपवत्।।

5  / 17                        गतिस्थ्त्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः।।

5  / 18                        आकाशस्यावगाहः।।

5  / 19                        शरीरवाङ्मनः प्राणापानाः पुद्गलनानाम्।।

5  / 20                        सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च।।

5  / 21                        परस्परोपग्रहो जीवानाम्।।

5  / 22                        वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य।।

5  / 23                        स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः।।

5  / 24                        शब्दसौक्ष्म्यस्थौल्य संस्थान भेदतश्छायातपोद्योतवन्तश्च।।

5  / 25                        अणवः स्कन्धाश्च।।

5  / 26                        भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते।।

5  / 27                        भेदादुणुः।।

5  / 28                        भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः।।

5  / 29                        सद्द्रव्यलक्षणम्।।

5  / 30                        उत्पादव्ययध्रौव्युक्तं सत्।।

5  / 31                        तदभावाव्ययं नित्यम्।।

                             

5  / 32                        अर्पितानर्पितसिद्धेः।।

5  / 33                        स्निग्धरुक्षत्वाद् बन्धः।।

5  / 34                        न जघन्यगुणानाम्।।

5  / 35                        गुणसाम्ये सदृशानाम्।।

5  / 36                        द्वयाधिकादिगुणानां तु।।

5  / 37                        बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च।।

5  / 38                        गुणपर्ययवत् द्रव्यम्।।

5  / 39                        कालश्च।।

5  / 40                        सोऽनन्तसमयः।।

5  / 41                        द्रव्यश्रया निर्गुणा गुणाः।।

5  / 42                        तद्भावः परिणामः।।

इति पञ्चमोऽध्यायः।।

अथ षष्ठोऽध्यायः

6 / 1        कायवाङ्मनः कर्म योगः।।

6 / 2        स आस्रवः।।

6 / 3        शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य।।

6 / 4        सकषायाकषाययोः सांपरायिकेर्यापथयोः।।

                             

6 / 5        इन्द्रियकषायाव्रत क्रियाः पञ्चचतुः पञ्चपञ्चपबिंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः।।

6 / 6        तीव्रमन्दज्ञाताज्ञात भावाधिकरण वर्यिविशेषेभ्यस्तद्विशेषः।।

6 / 7        अधिकरणं जीवाजीवाः।।

6 / 8        आद्यं संरम्भ समारम्भारम्भ योग कृतकारितानुमत कषायविशेषेस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः।।

6 / 9        निर्वर्तनानिक्षेपसंयोग निसर्गा द्विजतुर्द्वि्वत्रिभेदाः परम्।।

6 / 10    तत्प्रदोष निह्रवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः।।

6 / 11    दुःख शोकतापा क्रन्दन वधपरिदेवनान्यित्मपरोभयस्थान्यसद्वेघस्य।।

6 / 12    भूतव्रत्यनुकम्पादानसराग संयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य।।

6 / 13    केवलिश्रुतसंघ धर्म देवावर्णवादो दर्शनमोहस्य।।

6 / 14    कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य।।

6 / 15    बह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकसयायुषः।।

6 / 16    मायातिर्यग्योनस्य।।

6 / 17    अलपारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य।।

6 / 18    स्वभावमार्दवं चं।।

6 / 19    निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषाम्।।

6 / 20    सरागसंयम संयमासंयमा काम निर्जराबालतपांसि दैवस्य।।

6 / 21    सम्यक्त्वं च।।

                             

6 / 22    योगवक्रता विसंवादनंचाशुभस्य नाम्नः।।

6 / 23    तद्विपरीतं शुभस्य।।

6 / 24    दर्शनविशुद्धिर्निनय सम्पन्नता शीलवव्रतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्ति तस्त्यागतपसी साधु समाधिर्वैयावृत्त्यकरण मर्हदाचार्य बहुश्रुत प्रवचन भक्ति रावश्य का परिहाणिर्मार्गं प्रभवनाप्रवचन वत्सलत्व मितितीर्थकरत्वस्य।।

6 / 25    परात्मनिन्दा प्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गौत्रस्य।।

6 / 26    तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सकौ चोत्तरस्य।।

6 / 27    विघ्नकरणमन्तरायस्य।।

इति षष्ठोऽध्यायः।।

अथ सप्तमोऽध्यायः।।

7 / 1        हिंसाव-तस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यौ विरतिर्व्रतम।।

7 / 2        देशसर्वतोऽणुमहती।।

7 / 3        तत्स्थैर्याथा भावनाः पाञ्च पञ्च।।

7 / 4        वाङ्गमनोगुप्तीर्यादान निक्षेपण समित्यालोकितपान भोजनानि पंच।।

7 / 5        क्रोधलोभ भीरुत्व हास्य प्रत्याख्यानान्युवी चिभाषणं च पंच।।

7 / 6        शून्यागार विमोचिता वासपरोधा करण भैक्षशुद्धिसमधर्माविसंवादाः पंच।।

7 / 7        स्त्रीराग कथा श्रवणतन्मनोहरांग निरीक्षणपूर्व रतानुसम् रण वृष्येष्ट सरस्वशरीर संस्कार त्यागाः पंच।।

                             

7 / 8        मनोज्ञामनोत्रज्ञन्द्रिय विषय रागद्वेष वर्जनानि पंच।।

7 / 9        हिंसादिष्वहामुत्रा पायावद्यदर्शनम्।।

7 / 10    दुःखमेव वा।।

7 / 11    मैत्रीप्रमोद कारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमानाविनयेषु।।

7 / 12    जगत्कायस्व भावौ वा संवेग वैराग्यर्थम्।।

7 / 13    प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा।।

7 / 14    असदभिधानमनृतम्।।

7 / 15    अदत्तादानं स्तेयम्।।

7 / 16    मैथुनमब्रह्म।।

7 / 17    मूर्च्छा परिग्रहः।।

7 / 18    निःशल्यो व्रती।।

7 / 19    अगार्यनगारश्च।।

7 / 20    अणुव्रतोऽगारी।।

7 / 21    दिग्देशानर्थदण्ड विरतिसामायिक प्रोष धोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागव्रतसंपन्नश्च।।

7 / 22    मारणान्तिकीं सल्लेखना जोषिता।।

7 / 23    शंकाकाङक्षाविचिकत्सान्यदृष्टि प्रशंसा संस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतीचाराः।।

7 / 24    व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम्।।

                             

7 / 25    बन्धवधच्छेदातिभारोपणान्नपाननिरोधाः।।

7 / 26    मिथ्योपदेश रहोभ्याख्यानकूटलेखक्रिया न्यासापहार साकारमन्त्र भेदाः।।

7 / 27    स्तेन प्रयोगतदाह्वतादान विरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिक मनोन्मान प्रतिरुपक व्यवहाराः।।

7 / 28    परविवाहक रणेत्वरिका परिगृहीता गमनानाङ्गक्रीडा कामतीव्राभिनिवेशाः।।

7 / 29    क्षेत्रवास्तुहिरण्य सुवर्णधन धान्य दासीदास कुप्य प्रमाणतिक्रमाः।।

7 / 30    ऊर्ध्वाधस्तिर्य ग्व्यतिक्रमःक्षेत्र वृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि।।

7 / 31    आनयन प्रेष्य प्रयोग शव्दरुपानुपात पुद्गलक्षेपाः।।

7 / 32    कन्दर्पकौत्कुच्य मौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोग परिभोगानर्थक्यानि।।

7 / 33    योगदुष्प्रणिधानानाद रस्मृत्यनुपस्थानानि।।

7 / 34    अप्रत्यवेक्षिता प्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणा नादर स्मृत्यनुपस्थानानि।।

7 / 35    सचित्त सम्बन्धसंमिश्राभिषवदुः पक्वाहाराः।।

7 / 36    सचित्तनिक्षेपा पिधानपरव्य पदेशमात्सर्यकालातिक्रमाः।।

7 / 37    जीवितमरणासंसमित्रानुराग सुखानुबन्ध निदानानि।।

7 / 38    अनुग्रहार्थ स्यस्यातिसर्गो दानम्।।

7 / 39    विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः।।

अथाष्टमोऽध्यायः।।

8 / 1      मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः।।

                             

8 / 2      सकषायत्वाज्जीवः कर्मणोयोग्यान् पुद्गनानादत्ते स बन्धः।।

8 / 3      प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशास्तद्विधयः।।

8 / 4      आद्यो ज्ञान दर्शनावरणवेदनीय मोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः।।

8 / 5      पञ्चनवद्व्यष्टाविंशति चतुर्द्विचत्वारिंशद्द्विपञ्च भेदा यथाक्रमम्।।

8 / 6      मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानाम्।।

8 / 7      चक्षुरचक्षुर वधिकेवलानां निद्रा निद्रा निद्रापचला प्रचलास्त्यनगृद्धयश्च।।

8 / 8      सदसद्वेद्ये।।

8 / 9      दर्शनचारित्रमोहनीया कषाय कषाय बेदनीयाख्या स्त्रिद्विनवषोडशभेदाः सम्यक्त्व मिथ्यात्वतदुभयान्य कषायकषायौ हास्य रत्यरतिशोक भय जुगुप्सास्त्रीपुन्नपुंसक बेदा अनन्तानुबन्ध्य प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलन विकल्पाश्चैकशः क्रोधमान माया लोभाः।।

8 / 10  नारकतैर्यग्योनमानुदैवानि।।

8 / 11  गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माण बन्धसंघात संस्थानसंहनन स्पर्श रस गन्ध वर्णनुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरघातातपोद्योतोच्छवास निहायोगतयः प्रत्येकशरोत्रस सुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्ति स्थिरादेय यशः कीर्तिसेतराणितीर्थकरत्वं च।।

8 / 12  उच्चैनींचैश्च।।

8 / 13  दानलाभोगोपभोगवीर्याणाम्।।

8 / 14  आदितस्तिसृणामन्रायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटी कोटयः परा स्थितः।।

8 / 15  सप्ततिरमोहनीयस्य।।

                             

8 / 16  विंशतिर्नामगोत्रयोः।।

8 / 17  त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाण्यायुषः।।

8 / 18  अपरा द्वादश मुहूर्त्ता वेदनीयस्य।।

8 / 19  नामगौत्रयोरष्टौ।।

8 / 20  शेषाणामन्तर्मुहर्ताः।।

8 / 21  विपाकोऽनुभवः।।

8 / 22  स यथानाम।।

8 / 23  ततश्च निर्जरा।।

8 / 24  नामप्रत्ययाः सर्वतो योग विशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाह स्थिताः सर्वात्म प्रदेशोष्वनन्तान्त प्रदेशाः।।

8 / 25  सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्।।

8 / 26  अतोऽन्यत्पापम्।।

इत्यष्टमोऽध्यायः।।

अथ नवमोऽध्यायः।।

9 / 1      आस्रवनिरोधः संवरः।।

9 / 2      स गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः।।

9 / 3      तपसा निर्जरा च।।

9 / 4      सम्यग्योग निग्रहो गुप्तिः।।

                             

9 / 5      ईर्याभाषैषणा दान निक्षेपोत्सर्गा समितयः।।

9 / 6      उत्तमक्षमामार्दवार्जवसत्य शौचसंयम तपस्त्यागा किञ्चन्य ब्रह्मचर्याणि धर्मः।।

9 / 7      अनित्याशरण संसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवर निर्जरा लोकबोधि दुर्लभ धर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः।।

9 / 8      मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः।।

9 / 9      क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्री चर्यानिषद्याशय्या क्रोध वधयाचनालाभ रोग तृणस्पर्श मल सत्कार पुरस्कार प्रज्ञानां दर्शनानि।।

9 / 10  सूक्ष्मसांपरायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश।

9 / 11  एकादश जिने।।

9 / 12  बादरसांपराये सर्वे।।

9 / 13  ज्ञानवरणे प्रज्ञाज्ञाने।।

9 / 14  दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ।।

9 / 15  चारित्रमोह नाग्यानरतिस्त्रि निषद्याक्रोशयाननासत्कार पुरस्काराः।।

9 / 16  वेदनीये शेषाः।।

9 / 17  एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नै कोनविंशतेः।।

9 / 18  सामायिकच्छेदोपस्थापना परिहार विशुद्धिसूक्ष्म सांपराय यथाख्यातमितिचारित्रम्।।

9 / 19  अनशानावमोदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तसय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः।।

9 / 20  प्रायश्चिविनय वैया वृत्त्यस्वाध्याय व्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्।।

                             

9 / 21  नवचतुर्दश पञ्चद्विभेदा यथाक्रमं प्रागध्यानात्।।

9 / 22  आलोचनप्रतिक्रमणतदुभय विवेक व्युतसर्गत पश्छेदपरिहारोपस्थापनाः।।

9 / 23  ज्ञानदर्शन चारित्रोपचाराः।।

9 / 24  आचार्योपाध्याय तपस्विशैक्ष ग्लानगण कुल संघ साधु मनोज्ञानाम्।।

9 / 25  वाचनापृच्छानानुप्रेक्षाऽऽम्नायधर्मोपदेशाः।।

9 / 26  बाह्याभ्यन्तरोपध्योः।।

9 / 27  उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्।।

9 / 28  आर्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि।

9 / 29  परे मोक्षहेतू।।

9 / 30  आर्तममनोज्ञस्य साप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः।।

9 / 31  विपरीतं मनोज्ञस्य।।

9 / 32  वेदनायाश्च।।

9 / 33  निदानं च।।

9 / 34  तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्।।

9 / 35  हिंसानृतस्तेय विषय संरक्षणेभ्यो रोद्रमविरतदेशविरतयोः।।

9 / 36  आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम्।।

9 / 37  शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः।।

                             

9 / 38  परे केवलिनः।।

9 / 39  पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्म क्रियाप्रतिपा दिव्युपरत क्रियानिवर्तीनि।।

9 / 40  त्र्येक योग काययोगा योगानाम्।।

9 / 41  एकाश्रयेसवितर्कवीचारे पूर्वे।।

9 / 42  अवीचार द्वितीयम्।।

9 / 43  वितर्कः श्रुतम्।।

9 / 44  वीचारोऽर्थव्यञ्जन योग संक्रान्तिः।।

9 / 45  सम्यग्दृष्टि श्रावक विरतानन्त वियोजक दर्शन मोहक्षप कोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येय गुणनिर्जराः।।

9 / 46  पुलाकबकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकाः निर्गन्थाः।।

9 / 47  संयम श्रुतप्रतिसेवना तीर्थलिंगलेश्योपपादस्थान विकल्पतः साध्याः।।

इति नवमोऽध्यायः।।

अथ दशमोऽध्यायः।।

10 / 1  मोहक्षयाज्ज्ञान दर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्।।

10 / 2  बन्धहेत्व भावनिर्जराभ्यां कृत्स्न कर्मविप्रमोक्षो मोक्षः।।

10 / 3  औपशमिकादिभव्यत्वानां च।

10 / 4  अन्यत्र केवल सम्यक्त्वज्ञान दर्शन सिद्धत्वेभ्यः।।

                             

10 / 5  तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोगन्तात्।।

10 / 6  पूर्व प्रयोगादसंगत्वाद्बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च।।

10 / 7  आविद्धकुलाल चक्रबद्व्यपगतलेपालांबुवदेरण्डबीजादग्निशिखाबच्च।।

10 / 8  धर्मास्तिकाया भावात्।।

10 / 9  क्षेत्र कालगतिंलिग तीर्थ चारित्र प्रत्येकबुद्धबोधित ज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः।।

इति दशमोऽध्यायः।।

इति तत्वार्थसूत्राणि समाप्तानि।।