‘आत्मन्’
या
आत्मा
पद
भारतीय
दर्शन
के
महत्त्वपूर्ण
प्रत्ययों(concepts)
में
से
एक
है।
उपनिषदों
के
मूलभूत
विषय-वस्तु
के
रूप
में
यह
आता
है।
जहाँ
इससे
अभिप्राय
व्यक्ति
में
अन्तर्निहित
उस
मूलभूत
सत्
से
किया
गया
है
जो
कि
शाश्वत
तत्त्व
है
तथा
मृत्यु
के
पश्चात्
भी
जिसका
विनाश
नहीं
होता।
आत्मा
या
ब्रह्म
के
प्रत्यय
का
उद्भव
–
उपनिषदों
में
इस
प्रश्न
पर
विचार
किया
गया
है
कि
–
जगत
का
मूल
तत्त्व
क्या
है/कौन
है
? इस
प्रश्न
का
उत्तर
में
उपनिषदों
में
ब्रह्म’
से
दिया
गया
है।
अर्थात्
ब्रह्म
ही
वह
मूलभूत
तत्त्व
है
जिससे
यह
समस्त
जगत
का
उद्भव
हुआ
है
– “बृहति
बृहंति
बृह्म”
अर्थात्
बढ़ा
हुआ
है,
बढ़ता
है
इसलिये
ब्रह्म
कहलाता
है।
यदि
समस्त
भूत
जगत्
ब्रह्म
की
ही
सृष्टि
है
तब
तार्किक
रूप
से
हममें
भी
जो
मूल
तत्त्व
है
वह
भी
ब्रह्म
ही
होगा।
इसीलिये
उपनिषदों
में
ब्रह्म
एवं
आत्मा
को
एक
बतलाया
गया
है।
इसी
की
अनुभूति
को
आत्मानुभूति
या
ब्रह्मानुभूति
भी
कहा
गया
है।
‘आत्मा’
शब्द
के
अभिप्राय
–
आत्मा
शब्द
से
सर्वप्रथम
अभिप्राय
‘श्वास-प्रश्वास’(breathing)
तथा
‘मूलभूत-जीवन-तत्त्व’
किया
गया
प्रतीत
होता
है।
इसका
ही
आगे
बहुआयामी
विस्तार
हुआ
जैसे
-
यदाप्नोति
यदादत्ति
यदत्ति
यच्चास्य
सन्ततो
भवम्
....
तस्माद्
इति
आत्मा
कीर्त्यते।।(सन्धि
विच्छेद
कृत)
-
शांकरभाष्य
अर्थात्,
जो
प्राप्त
करता
है(देह),
जो
भोजन
करता
है,
जो
कि
सतत्
(शाश्वत
तत्त्व
के
रूप
में)
रहता
है,
इससे
वह
आत्मा
कहलाता
है।
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उपनिषदों
में
आत्मा
विषयक
चर्चा
–
तैत्तरीय
उपनिषत्
में
आत्मा
या
चैतन्य
के
पाँच
कोशों
की
चर्चा
की
गयी
प्रथम
अन्नमय
कोश,
मनोमय
कोश,
प्राणमय
कोश,
विज्ञानमय
कोश
तथा
आनन्दमय
कोश।
आनन्दमय
कोश
से
ही
आत्मा
के
स्वरूप
की
अभिव्यक्ति
की
गयी
है।
माण्डूक्य
उपनिषत्
में
चेतना
के
चार
स्तरों
का
वर्णन
प्राप्त
होता
है
–
1.
जाग्रत
2.
स्वप्न
3.
सुषुप्ति
4.
तुरीय
यह
तुरीय
अवस्था
को
ही
आत्मा
के
स्वरूप
की
अवस्था
कहा
गया
है
-
“शान्तं
शिवमद्वैतं
चतुर्थ
स
आत्मा
स
विज्ञेयः”।।
माण्डूक्योपनिषत्,
7
छान्दोग्य
उपनिषत्
इसी
सन्दर्भ
में
इन्द्र
एवं
विरोचन
दोनों
प्रजापति
के
पास
जाकर
आत्मा(ब्रह्म)
के
स्वरूप
के
विषय
में
प्रश्न
करते
हैं।
यहाँ
पर
प्रणव
या
ॐ
को
इसका
प्रतीक
या
वाचक
कहा
गया
है।
बृहदारण्यक
उपनिषत्
में
याज्ञवल्क्य
एवं
मैत्रेयी
के
संवाद
में
भी
आत्मा
के
सम्यक्
ज्ञान
मनन-चिन्तन
एवं
निधिध्यासन
की
बात
की
गयी
है
तथा
इससे
ही
परमतत्त्व
के
ज्ञान
को
भी
संभव
बतलाया
गया
है
-
“आत्मा
वा
अरे
श्रोतव्या
मन्तव्या
निदिध्यासतव्या.......................”
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Reference & Basic Quotations
कठोपनिषत्
–
येयं
प्रेते
विचिकित्सा
मनुष्येऽस्तीत्येके
नायमस्तीति
चैके।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं
वराणामेष
वरस्तृतीय:
॥२०॥
देवैरत्रापि
विचिकित्सितं
पुरा
न
हि
सुवेज्ञेयमणुरेष
धर्म
:।
अन्यं
वरं
नचिकेतो
वृणीष्व
मा
मोपरोत्सीरति
मा
सृजैनम्
॥२१॥
केनोपनिषत्
–
ॐ
केनेषितं
पतति
प्रेषितं
मनः
केन
प्राणः
प्रथमः
प्रैति
युक्तः।
केनेषितां
वाचमिमां
वदन्ति
चक्षुः
श्रोत्रं
कउ
देवो
युनक्ति।।1।।
श्रोत्रस्य
श्रोत्रं
मनसो
मनो
यद्वाचो
ह
वाचं
सउ
प्राणस्य
प्राणश्चचक्षुश्चक्षुरितिमुच्य
धीराः
प्रेत्यास्माल्लोकादमृता
भवन्ति।।2।।
न
तत्र
चक्षुर्गच्छति
न
वाग्गच्छति
नो
मनो
न
विद्मो
न
विजानीमो
यथैतदनुशिष्यादन्यदेव
तद्विदितादथो
अविदितादधि।
इति
शुश्रुम
पूर्वेषां
ये
नस्तद्व्याचचक्षिरे।।3।।
यद्वाचानभ्युदितं
येन
वागभ्युद्यते।
तदेव
ब्रह्म
त्वं
विद्धि
नेदं
यदिदमुपासते।।4।।
प्रश्नोपनिषत्
–
तृतीयः
प्रश्नः
अथ
हैनं
कौसल्यश्चाश्वलायनः
पप्रच्छ।।
भगवन्कुत
एष
प्राणो
जायते
कथमायात्यस्मिञ्छरीर
आत्मानं
वा
प्रविभज्य
कथं
प्रतिष्ठते
केनोत्क्रमते
कथं
बाह्यमभधत्ते
कथमध्यात्ममिति।।1।।
माण्डूक्योपनिषत्
–
अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं
प्रपञ्चोपशमं
शान्तं
शिवमद्वैतं
चतुर्थ
स
आत्मा
स
विज्ञेयः।।7।।
सोऽयमात्माऽध्यक्षरमोङ्कारोऽधिमात्रं
पादा
मात्रा
मात्राश्च
पाद
अकार
उकारो
मकार
इति
।।8।।
अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः
प्रपञ्चोपशमः
शिवोऽद्वैत
एवमोङ्कार
आत्मैव
संविशत्यात्मनात्मानं
य
एवं
वेद
य
एवं
वेद।।12।।
तैत्तरीयोपनिषत्
–
यतो
वाचो
निवर्तन्ते।।
अप्राप्य
मनसा
सह।।
आनन्दं
ब्रह्मणो
विद्वान्।।
न
बिभेति
कदाचनेति।।
तस्यैष
एव
शारीर
आत्मा।।
यः
पूर्वस्य।।
तस्माद्वा
एतस्मान्मनोमयात्।।
अनयोऽन्तर
आत्मा
विज्ञानमयः।।
तेनैष
पूर्णः।।
स
वा
एष
पुरुषविध
एव।।
तस्य
पुरुषविधताम्।।
अन्वयं
पुरुषविधः।।
तस्य
श्रद्धैव
शिरः
।।
ऋतं
दक्षिणः
पक्षः।।
सत्यमुत्तरः
पक्षः
।।
योग
आत्मा।।
महः
पुच्छं
प्रतिष्टा।।
तदप्येष
श्लोको
भवति।।
इति
चतुर्थोऽनुवाकः।।4।।
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