भारतीय सनातन परम्परा या वैदिक धारा से प्रवाहित आर्य संस्कृति हिन्दू-जीवन-पद्धति के नाम से भी अभिहित की जाती है। यह संसार के अन्य धर्मों से कई तरह से विलक्षण तथा विलग है। इसके कोई वैयक्तिक प्रवर्तक या संस्थापक नहीं हुए। वेदों की इसमें सर्वोपरिता स्वीकार की गयी है। वेद से तात्पर्य ज्ञान से है। ऋषियों ने तप एवं साधना से जिन श्रेष्ठ जीवनमूल्यों का मनन किया, वे ही वैदिक मन्त्र कहलाए। इससे ही वेदों को मन्त्रों की संहिता कहा जाता है। इन मन्त्रों का अनुपालन व्यक्ति से समष्टि, ऐहिक-कल्याण से वैश्विक कल्याण तथा जीव के ब्रह्म स्वरूप की अनुभूति तक प्रसृत है। यही उपनिषदों की विशिष्ट विषय-वस्तु है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण ने इस सार को ही सरलतया व्याख्यायित किया। वेदान्त सूत्रों में अत्यन्त सार गर्भित-रूप से इनका संकलन हुया।
षड्दर्शनों में वैदिक दर्शन के ही विभिन्न पक्षों का स्वतन्त्र रूप से विकास हुआ। इनमे आन्वीक्षा एवं तर्कपरक पद्धति से सत्यानुवेषी न्यायदर्शन का, धर्म की जिज्ञासा के साथ मीमांसा दर्शन का, धर्म के अभ्युदय एवं निःश्रेयस् स्वरूप की व्याख्या से वैशेषिकदर्शन का एवं दुःखों की अत्यन्त निवृत्ति को परमपुरुषार्थ के निरूपण से सांख्यदर्शन का प्रणयन हुआ। वेदों की विशिष्ट तपश्चर्या, साधना की विशिष्ट पद्धतियाँ एवं समाधि - इनका विशदीकरण योगदर्शन मे हुआ। त्रिकाल-अबाधित-सत् के अद्वैत स्वरूप से आदि-शंकराचार्य ने अद्वैत-दर्शन की, एवं रामानुजाचार्य ने प्रपत्ति से सत्य के साक्षात्कार से विशिष्टाद्वैतदर्शन की प्रवर्तना की।
इन श्रेष्ठ जीवन मूल्यों के अनुपालन की विधियों का सूक्ष्म निरूपण धर्मशास्त्र के अन्तर्गत हुआ। धर्मशास्त्रों मे चिरन्तन सत् की गवेषणा से ओत-प्रोत जीवनपद्धति के नियम ही पूर्व में समाहित रहे जिनका विस्तार सर्वसमावेशी समाजिक नियन्त्रण की विधि-संहिता तक हुआ। अर्थशास्त्र के अन्तर्गत शासनकर्ता एवं राज्य के नीति-निर्धारक समस्त तत्त्वों का समावेश ज्ञान-विज्ञान की जिस शाखा के अन्तर्गत हुआ वह अर्थशास्त्र है।