परिचय
महर्षि
महेश
योगी
भी
विश्व
पटल
पर
संस्कारधानी
जबलपुर
नगरी
के
गौरव
के
रूप
में
विख्यात
विभूति
हैं।
जबलपुर
में
पाटबाबा
के
पहाड़ी
का
क्षेत्र
उनके
अन्दर
धर्म
एवं
अध्यात्म
को
जगाने
वाला
रहा
है।
काँचघर
तथा
बाई
का
बगीचा
का
क्षेत्र
आज
भी
उनके
चरणों
की
आहट
को
संजोये
हुये
है।
आचार्य
श्री
का
जबलुपर
के
प्रति
अपनी
पूर्व
कर्म
भूमि
के
रूप
में
अपूर्व
स्नेह
भी
रहा
है।
यहाँ
पर
स्थापित
उनके
द्वारा
महिला
महाविद्यालय
हो
या
वैदिक
विश्वविद्यालय
के
रूप
में
हो
या
महर्षि
विद्यामन्दिरों
के
रूप
में
हो
या
ग्वारीघाट
के
उस
तट
से
लगा
हुया
वेद-पाठी
आवासीय
विद्यालय
हो
- ये
सभी
महर्षि
योगी
जी
के
जबलपुर
नगर
के
लिये
उनके
दिव्य
प्रेम
के
अवदान
के
प्रतिरूप
हैं।
इनके
माध्यम
से
पारम्परिक
वेद
विज्ञान
में
अध्ययन-अध्यापन
की
गौरवशाली
परम्परायें
अपने
चिरन्तन
पारम्परिक
स्वरूप
को
प्राप्त
कर
पुनः
विश्व
पटल
पर
आलोकित
हों
ऐसा
उद्देश्य
कहा
जा
सकता
है।
भावातीत
ध्यान
महर्षि
महेश
योगी
द्वारा
भावातीत
ध्यान
अत्यन्त
प्रभावी
एवं
लोकप्रिय
हुया।
1959 से
अमेरिका
प्रवास
से
बीटल
ग्रुप
तथा
अनेक
सेलिब्रेटिस
उनकी
इस
ध्यान
पद्धति
से
आकर्षित
हुये
।
महर्षि
जी
ने
भावातीत
ध्यान
को
बीजमंत्र
के
साथ
दीक्षा
के
माध्यम
से
सिखलाने
को
तथा
ध्यान
एवं
समाधि
की
विभिन्न
स्थितियों
को
व्याख्यायित
किया
है।
महत्वपूर्ण
ग्रन्थ
इस
सम्बन्ध
में
उनकी
दो
पुस्तकें
महत्वपूर्ण
रही
हैं
- The Science of
Being and Art of Living (1963) and Meditations of Maharishi Mahesh Yogi (1968)।
भावातीत
ध्यान
को
मनोवैज्ञानिकों
तथा
डाक्टरों
ने
भी
परीक्षण
कर
इसे
मन
एवं
चित्त
को
गहन
रिलेक्स
प्रदान
कराने
वाला,
आन्तरिक
आनन्द
उत्पन
करने
वाला
तथा
जीवन
शक्ति
को
वर्धित
करने
वाला
बतलाया
है।
|
आचार्य
ओशो
जिनका
पूरा
नाम
रजनीश
चन्द्रमोहन
था,
आप
की
शिक्षा
का
आरम्भ
यहीं
पर
तथा
उच्च
शिक्षा
की
उपाधि
दर्शनशास्त्र
में
सागर
विश्वविद्यालय
से
हुआ।
आगे
महाकोशल
महाविद्यालय
में
आपने
दर्शनशास्त्र
के
सहा.प्रध्यापक
के
रूप
में
लगभग
नौ
वर्षों
तक
कार्य
किया।
समकालीन
लोग
बताते
हैं
कि
आचार्य
रजनीश
महाविद्यालय
के
प्रति
आगमन
एवं
प्रस्थान
के
समय
लगभग
ध्यानस्थ
अवस्था
में
आया
करते
थे।
योग
साधना
की
सक्रिय
स्थली
को
भी
उन्होंने
देवताल
की
पहाड़िया
को
बनाया
हुया
था।
जहाँ
वे
शाम
को
जाते
थे
तो
कभी-कभी
सुबह
ही
वापस
आते
थे।
अध्ययन
के
प्रति
भी
उनकी
विलक्षणता
थी,
एक
दिन
में
कई
पुस्तकों
को
ग्रन्थालय
से
निकलवाकर
शीघ्र
उनको
वापस
कर
अन्य
को
पुस्तक
को
लेना
उनकी
विस्मयकारक
अध्ययन
शीलता
को
उजागर
करता
है।
आज
भी
विदेशों
से
आने
वाले
ओशो
प्रेमी
महाकोशल
महाविद्यालय
में
आकर
उस
एंट्री
रजिस्टर
के
फोटो
खींच
कर
ले
जाते
हैं,
जिस
पर
हस्ताक्षर
करके
ओशो
पुस्तक
लिया
करते
थे।
ओशो
की
अन्य
विलक्षणता
उनकी
योग
परक
दृष्टि
एवं
अनुभूति
थी।
योग
के
मूलग्रन्थ
योगसूत्र
पर
अपने
व्याख्यान
में
उन्होंने
80 के
दशक
में
ही
कह
दिया
था
कि
आने
वाला
भविष्य
पतंजलि
तथा
योग
का
ही
होगा
क्योंकि
योग
वैज्ञानिकता
से
परिपूर्ण
है।
योग
ने
तपस्या
एवं
अभ्यास
से
अंतर्जगत
की
यात्रा
के
माध्यम
से
शरीर-विज्ञान
को
जाना
है।
योग
ने
शरीर
विज्ञान
को
जीवन
की
जागरुकता
और
होश
के
माध्यम
से
आविष्कृत
किया
है।
इसी
कारण
बहुत
सी
ऐसी
बातें
जिनकी
योग
बात
करता
है,
लेकिन
आधुनिक
शरीर
विज्ञान
उससे
सहमत
नहीं
है।
क्योंकि
आधुनिक
शरीर
विज्ञान
मृत
व्यक्ति
की
लाश
के
आधार
पर
निर्णय
लेता
है,
औऱ
योग
का
सम्बन्ध
सीधा
जीवन
से
है।
(ओशो
–
पतंजलियोगसूत्र,,
भाग
4, पृ.289)
आचार्य
रजनीश
योग
के
प्रखर
समर्थक
थे
तथा
उन्होंने
ध्यान
की
विशिष्ट
विधियाँ
सक्रिय
ध्यान
या
डॉयनमिक
मेडिटेशन
की
समाज
में
प्रस्तुत
की।
आचार्य
रजनीश
के
व्याख्यान
का
तरीके
को
सुनने
वालों
एवं
विदेशियों
ने
भी
करिश्माई
कहा
है।
जब
वे
बोलना
शुरु
करते
थे
तो
एक
विषय
पर
एक
साथ
अनेक
कथा,
आख्यान,
दृष्टान्त,
उदाहरण
प्रस्तुत
करते
थे
कि
सुनने
वाले
अचानक
ज्ञान
प्रवाह
के
आवेग
से
विस्मित,
विमुग्ध,
अभिभूत
तथा
कुछ-कुछ
आक्रान्त
भी
हो
जाते
थे।
उनकी
इसी
करिश्माई
शैली
तथा
ध्यान
के
उन्मुक्त
तरीके
तथा
जोग
एवं
भोग
के
समन्वयात्मक
विचारों
ने
उनको
पश्चिम
जगत
में
शीघ्र
मान्य,
एक
लोकप्रिय
व्यक्तित्व
एवं
प्रतिष्ठत
धर्मगुरु
के
रूप
में
स्थापित
कर
दिया
था।
रूढ़ियों
के
प्रखर
आलोचक
एवं
पाखण्ड
को
उभारने
वाली
उनकी
तीक्ष्ण
शैली
जहाँ
एक
ओर
जिज्ञासु
व्यक्ति
में
गहन
आस्था
भरकर
उसे
जीवन
के
सत्य
को
खोजने
के
प्रति
आमुख
तथा
गंभीर
कर
देती
थी,
वहीं
परम्परागत
स्वनामधन्य
पंडितों
को
कटु
आलोचक
भी
बना
देती
थी।
ओशो
स्पष्ट
कहते
थे
कि
मेरा
संदेश
कोई
सिद्धान्त
कोई
चिन्तन
नहीं
है
यह
तो
रूपान्तरण
की
एक
प्रक्रिया
या
कीमिया
है,
एक
विज्ञान
है।
ओशो
इसे
अनुभूति
करने
को
कहते
हैं
और
उनका
मूल
संदेश
ध्यान
ही
रहा
यद्यपि
इसमें
उन्होंने
रेचन
का
समावेश
करके
नये
आयाम
दिये
तथा
इसके
द्वारा
नये
मनुष्य
का
उद्भव
‘जोरबा
दि
बुद्ध’
के
रूप
में
निरूपित
किया।
नगर
का
प्रतिष्ठित
उद्यान
भंवरताल
के
मौलि
श्री
वृक्ष
जिसे
सम्बोधि
का
वृक्ष
भी
कहा
जाता
था,
जहाँ
आचार्य
प्रवर
ने
21 मार्च
1953 को
सम्बोधि
प्राप्त
की
आज
भी
ओशो
प्रेमी
के
लिये
परम
संवेदना
का
महत्व
रखता
है।
|