|
|
|
|
|जीवनपरिचय|योग
एक विज्ञान|योग एवं चेतना
पर ओशो के दस सूत्र|योगसूत्र
पर विस्तृत भाष्य|चेतना का स्वरूप|मन|सत्य, चेतना औऱ
होशपूर्णता|चेतना की अभिव्यक्ति की चार
अवस्थाएँ|
|
|
योग के
आधुनिक चिन्तक तथा ग्रन्थ - 3
ओशो रजनीश
ओशो कम्यून के
संस्थापक
अन्य लिंक
:
योगानन्दजी |
ओशो रजनीश
| जे. कृष्णमूर्ति |महर्षि
महेश योगी |
|
जीवनपरिचय |
परिचय
–
जन्म
11 दिसम्बर
1931- 19 जन.
1990, कुचवाड़ा
ग्राम,
मध्यप्रदेश
21
वर्ष
की
आयु
में
सम्बोधि
प्राप्त
की
–
कहा
जाता
है।
पूरा
नाम
- चन्द्रमोहन
रजनीश
जैन।
अध्ययन
–
जबलपुर,
सागर
अध्य़ापन
–
महाकोशल
महाविद्यालय,
जबलपुर,
दर्शन
शास्त्र
के
प्राध्यापक
( नौ
वर्ष)
योग
विधी
- नवसंन्यासी
दीक्षा
के
माध्यम
से
आरम्भ
किया
- 1970,
डायनमिक
योग।
स्थापित
संस्थायें
-
श्री
रजनीश
आश्रम,
पूना।
1974।
(ओशो
कम्यून),
ओरेगन
(यू.एस.ए.)
रचनाएँ
–
कोई
भी
नहीं
हैं।
जो
भी
पुस्तक
के
रूप
में
उपलब्ध
होती
हैं
वे
उनके
रिकार्डेड
प्रवचन,
भाषण
आदि
हैं।
लगभग
सभी
विषयों
पर
ओशो
रजनीश
ने
गंभीर
वक्तव्य
दिये
हैं।
- दर्शन,
योग,
राजनीति,
समाज
विज्ञान,
मनोविज्ञान
आदि।
योग
पर
उनके
मन्तव्यों
का
संकलन
दो
संकलित
ग्रन्थों
के
रूप
में
मिलता
है
–
पतंजलि
योग
सूत्र
पर
उनके
प्रवचन,
एवं
योग
नये
आयाम।
|
योग
एक
विज्ञान |
योग
एक
विज्ञान
है,
कोई
शास्त्र
नहीं
है।
योग
का
इस्लाम,
हिंदू,
जैन
या
ईसाई
से
कोई
संबंध
नहीं
है।
योग
एक
विज्ञान
है,
विश्वास
नहीं
है।
योग
की
अनुभूति
के
लिये
किसी
तरह
की
श्रद्धा
आवश्यक
नहीं
है।
योग
नास्तिक-आस्तिक
की
भी
चिंता
नहीं
करता। पृ.4
योग
की
वैज्ञानिकता
योग
एक
संपूर्ण
विज्ञान
है।
योग
विश्वास
नहीं
सिखाता,
योग
जानना
सिखाता
है।
योग
अंधानुकरण
बनने
के
लिये
नहीं
कहता,
योग
सिखाता
है
कि
आँखें
कैसे
खोलनी
हैं।
योग
परम
सत्य
के
विषय
में
कुछ
नहीं
कहता
है।
योग
तो
बस
दृष्टि
के
बारे
में
बताता
है
कि
दिव्य
दृष्टि
कैसे
उपलब्ध
हो
...........................
वह
तो
अपरिसीम
दिव्यता,
अलौकिकता
है।
ओशो
पतंजलियोगसूत्र,
भाग 4
पृ.133
योग
कोई
ऐसा
दर्शन
नहीं
है
जो
केवल
आस्था
औऱ
विश्वास
के
आधार
पर
खड़ा
हो।
योग
तो
सम्पूर्ण
विधि
है,
एक
वैज्ञानिक
विधि।
उस
विलक्षणता
को
कैसे
उपलब्ध
कर
लेना,
यह
जानने
की
वैज्ञानिक
विधी
है।
भाग
4, पृ.190
योग
की
भविष्य
में
महत्ता
आने
वाला
भविष्य
पतंजलि
का
है।
भविष्य
बाइबिल
का
नहीं
है,
कुरान
का
नहीं
है,
गीता
का
नहीं
है,
भविष्य
है
योगसूत्रों
का
–
क्योंकि
पतंजलि
वैज्ञानिक
भाषा
में
बात
करते
हैं।
भाग
4, पृ.176
योग
ने
अंतर्जगत
के
माध्यम
से
शरीर-विज्ञान
को
जाना
है।
योग
ने
शरीर
विज्ञान
को
जीवन
की
जागरुकता
और
होश
के
माध्यम
से
आविष्कृत
किया
है।
इसी
कारण
बहुत
सी
ऐसी
बातें
जिनकी
योग
बात
करता
है,
लेकिन
आधुनिक
शरीर
विज्ञान
उससे
सहमत
नहीं
है।
क्योंकि
आधुनिक
शरीर
विज्ञान
मृत
व्यक्ति
की
लाश
के
आधार
पर
निर्णय
लेता
है,
औऱ
योग
का
सम्बन्ध
सीधा
जीवन
से
है।
भाग
4, पृ.289
|
-
योग
एवं
चेतना
पर
ओशो
के
दस
सूत्र
–
|
योग
का
पहला
सूत्र
है
–
जीवन
ऊर्जा
है,
लाइफ
इज़
एनर्जी,
जीवन
शक्ति
है।
पृ.5
योग
का
दूसरा
सूत्र
है
–
शक्ति
के
दो
आयाम
हैं-एक
अस्तित्व
औऱ
एक
अनस्तित्व,
Existence and non-existence.
पृ.6
योग
का
दूसरा
सूत्र
है
–
प्रत्येक
अस्तित्व
के
पीछे
अनस्तित्व
जुड़ा
हुआ
है।
पृ.7
अध्यात्म
की
भाषा
में
योग
का
मतलब
होता
है
–
इंटीग्रेटेड,
दि
टोटल,
पूरा
समग्र।
पृ.10
योग
का
दूसरा
सूत्र
है
जीवन
और
मृत्यु,
अस्तित्व-अनस्तित्व,
अंधकार-प्रकाश,
बचपन-बुढ़ापा,
सुख-दुख,
सर्दी-गरमी,
सब
रिलेटिविटीज
हैं,
सब
सापेक्षताएँ
हैं।
ये
सब
एक
ही
चीज़
के
नाम
हैं।
बुराई-भलाई.....।
(पृ.11)
योग
अच्छे
और
बुरे
का
ट्रांसनडेंस
है।
दोनों
के
पार
जाना
है।
योग
जन्म
औऱ
मृत्यु
का
अतिक्रमण
है।
योग
अस्तित्व
और
अनस्तित्व
का
अतिक्रमण
है,
दोनों
के
पार
जाना
है,
बियांड
है।
चेतन
और
अचेतन
अस्तित्व
के
दो
रूप
हैं।
दो
अस्तित्व
नहीं
हैं,
अस्तित्व
के
ही
दो
रूप
हैं।
इसलिये
सब
कनवर्टिबल
है।
इसलिये
चेतन
से
अचेतन
आ
सकता
है,
अचेतन
चेतन
में
जा
सकता
है।
(पृ.16)
चेतन
और
अचेतन,
अस्तित्व
के
–
एक
ही
अस्तित्व
के
–
दो
छोर
हैं।
चेतन
अचेतन
हो
सकता
है,
अचेतन
चेतन
होता
रहता
है,
यही
तीसरा
सूत्र
है
योग
का
।ये
सूत्र
समझ
लेने
चाहिये
क्योंकि
इन्हीं
सूत्रों
के
ऊपर
योग
की
सारी
साधना
का
भवन
खड़ा
होता
है।
(पृ.17)
शरीर
और
मन,
ऐसी
दो
चीजें
नहीं
है,
शरीर
और
मन
एक
ही
चीज
का
विसतार
है,
एक
ही
चीज
के
अलग-अलग
वेवलेंथ
हैं।
चेतन
और
अचेतन
एक
ही
चीज
का
विस्तार
है।
पृ.20
क्या
कारण
है
कि
मनुष्य
का
चित्त
उन
बीजों
को
प्रभावित
करता
है।
चेतना
और
अचेतना
के
बीच
कहीं
दीवाल
नहीं
है।
औऱ
जो
इस
हृदय
में
प्रतिध्वनित
होता
है,
वह
जगत
के
सब
कोनों
तक
पहुँच
जाता
है।
और
जो
जगत
के
किसी
भी
कोने
में
प्रतिध्वनित
होता
है,
वब
इस
हृदय
के
कोनो
तक
आ
जाता
है।
हम
सब
इकठ्ठे
हैं,
संयुक्त
हैं।
पृ.22
योग
का
चौथा
सूत्र
कहता
है
–
ऊर्जा
संयुक्त
है,
ऊर्जा
एक
परिवार
है।
न
चेतन
अचेतन
से
टूटा
है,
न
अस्तित्व
अनस्तिव
से
टूटा
है,
न
पदार्थ
मन
से
टूटा
है,
न
शरीर
आत्मा
से
टूटा
है,
न
परमात्मा
आत्मा
से
टूटा
है,
प्रकृति
से
टूटा
है...।
पृ.22
एक
छोटा
सा
प्रयोग
करें।
एक
छोटे
से
बर्तन
में
पानी
भर
लें,
एक
गिलास
में
पानी
भर
लें।
औऱ
उस
पानी
पर
कोई
भी
चिकनी
चीज
फैला
दें
–
ग्रीस
फैला
दें,
थोड़ा
सा
घी
डाल
दें।
फिल
उस
गिलास
के
ऊपर
दोनों
आँखें
गड़ा
कर
बैठ
जाएँ,
दो
मिनट
तक
आँखें
न
झपकें।
औऱ
फिर
उस
पिन
से
कहें
कि
बाएँ
घूम
जाओ
! आप
हैरान
होंगे
किसुई
बाएँ
घूमती
है।
औऱ
उससे
कहं,
दाएँ
घूम
जाओ।
तो
आप
हैरान
होंगें
कि
दाएँ
घूमती
है।
औऱ
आफ
कहें
कि
रूक
जाओ।
तो
वह
रूकती
है।
औऱ
आपके
ईशारे
पर
चलती
है।
पृ.23
चौथा
सूत्र
–
सारा
जगत
एक
प्रवाह
है
ऊर्जा
का।
उसमें
हम
एक
लहर
से
ज्यादा
नहीं
हैं।
सब
जुड़ा
है।
इसलिये
जो
यगाँ
होता
है
वब
सब
जगह
फैल
जाता
है
और
जो
सब
जगह
होता
है
वह
यहाँ
सिकुड़
आता
है।
पृ.25
जीवन
संयुक्त
है,
जीवन
इकठ्ठा
है।
श्वास
बवाऔं
पर
निर्भर
है।
प्राण
की
गरमी
तारों
पर
, सर्यों
पर
निर्भर
है।
जीन
का
होना
सृष्टि
के
क्रम
पर
निरभर
है।
मृत्यु
का
होना
जन्म
का
दूसरा
पहलू
है।
यह
सब
हो
रहा
है।
पृ.24
योग
का
पाँचवा
सूत्र
है
–
जो
अणु
में
है
वह
विराट
में
भी
है।
जो
क्षुद्र
में
है,
वह
विराट
में
भी
है।
जो
सूक्ष्म
से
सूक्ष्म
में
है,
वह
बड़े
से
बड़े
मेंभी
है,
जो
बूँद
में
है,
वह
सागर
में
है।
पृ.30
छठवाँ
सूत्र
है
योग
का
- दान
और
ग्रहण,
भिखारी
होना
औऱ
सम्राट
होना,
सबके
साथ
इकठ्ठा
होना
है।
पृ.36
अर्थात्
देना
ही
पाना
है,
मिटना
ही
होना
है।क्योंकि
बूँद
भी
सागर
को
देती
है।
लेकिन
जब
कोई
बूँद
सागर
को
देती
है,
तो
कभी
देखा
? जब
बूँद
अपने
को
सागर
को
देती
हैतो
सागर
बूँ
को
मिल
जाता
है,
तत्काल
बूँद
सागर
हो
जाती
है।
पृ.44
सात
तलों
में
योग
मनुष्य
को
बाँटता
है,
सात
केंद्रों
में,
सप्त
चक्रों
में
मनुष्य
के
व्यक्तित्व
को
बाँटता
है।
इन
सात
चक्रों
पर
अनंत
ऊर्जा
और
शक्ति
सोई
हुई
है।
जैसे
एक
कली
में
फूल
बंद
होता
है।
पृ.64
ये
जो
सात
चक्र
हैं,
यह
प्रत्येक
चक्र
खोला
जा
सकता
है,
और
प्रत्येक
चक्र
की
पअपनी
क्षमताएं
हैं।
और
जब
सातों
खुल
जाते
हैं
तो
व्यक्ति
के
द्वार-दरवाजे
---वे
अनंत
के
लिये
खुल
जाते
हैं।
व्यक्ति
तब
अनंत
के
साथ
एक
हो
जाता
है।
पृ.65
योग
का
अनुभव
है
कि
जिस
केन्द्र
पर
हम
भीतर
ध्यान
करते
हैं
बह
केंद्र
तत्काल
सक्रिय
हो
जाता
है।
उशकी
सक्रियता
, उसकी
कलियों
को
जो
बंद
तीं,
खोल
देकी
है।
जैसे
सूरज
सुबह
पक्षियों
को
जगा
देता
है।
पृ.
योग
का
सांतवा
सूत्र
है
–
चेतना
जीवन
के
दो
रूप
हैं
–
स्व
चेतन,
सेल्फ
कान्ससनेस
और
स्व
अचेतन,
सेल्फ
अनकान्सस।
योग
का
आठवां
सूत्र
है-स्व
चेतना
से
योग
का
प्रारंभ
होता
है
और
स्व
के
विसर्जन
से
अंत।
स्व
चेतन
होना
मार्ग
है,
स्वयं
से
मुक्त
हो
जाना
मंजिल
है।
स्वयं
के
प्रति
होश
से
भरना
साधना
है
और
अंततः
होश
न
रह
जाए,
स्वयं
खो
जाए
, यह
सिद्धि
है।
पृ.74
आठवां
सूत्र
मैं
की
खोज
औऱ
मैं
के
खोने
का
सूत्र
है।
जैसे
ही
मैं
खो
जाता
है,
सब
मिल
जाता
है,
मैं
का
मतलब
है,
हमने
कुछ
पकड़ा
है,
सबके
खिलाफ।
मैं
को
अगर
ठीक
से
कहं
तो
मां
कामतलब
है
प्रतिरोध
का
बिंदु
, ए
प्वाइंट
ऑफ
रेसिस्टेंस।
यह
मैं
हमने
पकड़ा
है
सबके
खिलाफ,
सबकी
दुश्मनी
में
सबको
छोड़
कर
इसे
पकड़ा
है।
पृ.85
नौवाँ
सूत्र
योग
का
–
मृत्यु
भी
ऊर्जा
है।
डेथ
इज़
टू
एनर्जी।
|
|
योगसूत्र
पर
विस्तृत
भाष्य
(Vol. 1,2,3,4,5 Approx.
1500 pages) |
|
|
योगी
होने
का
मतलब
ही
इतना
है
कि
अपनी
संभवना
को
उपलब्ध
हो
जाना।
योग
दृष्टा
और
जागरुक
हो
जाने
का
विज्ञान
है।
जो
अभी
तुम
नहीं
हो
और
जो
तुम
हो
सकते
है
इसके
बीच
भेद
करने
का
विज्ञान
योग
है।
- ओशो
पतंजलियोगसूत्र
भाग
4, पृ.5
ध्यान
का
अर्थ
होता
है
–
चेतना
बिना
किसी
अवरोध
के.......क्योंकि
अवरोध
का
मतलब
हो
जाता
है
कि
ध्यान
भंग
हो
गया.........................एक
ही
विषय
पर
पूरी
चेतना
केंद्रित
हो
जाती
है।
भाग
4, पृ.
12
योग
आत्मप्रयास
है।
योग
में
व्यक्ति
को
स्वंय
अपने
ऊपर
कार्य
करना
होता
है।
योग
विचार
नहीं
है।
योग
व्यवहारिक
है।
यह
तो
अभ्यास
है,
यह
तो
एक
अनुशासन
है,
यह
तो
आंतरिक
रूपांतरण
का
विज्ञान
है।
भाग
4, पृ.20
योग
का
अर्थ
है
यूनिओ
मिस्टिका।
इसका
अर्थ
है
जुड़ाव,
स्वंय
के
साथ
एक
हो
जाना,
स्वंय
के
साथ
जुड़
जाना।
................ परमात्मा
के
साथ
एक
हो
जाना।
भाग
4, पृ.106
|
|
|
चेतना
का
स्वरूप |
|
|
चेतना
के
मूलस्वरूप
की
उपलब्धि
को
आचार्य
रजनीश
तीन
भागों
में
विभाजित
करते
हैं
-
-
पहला
भाग
–
शरीर
का
अतिक्रमण
कैसे
करना
है।
पहले
चरण
उनके
अनुसार
शरीर
है
जो
कि
अस्तित्व
का
पहला
संकेन्द्रित
घेरा
है।
-
दूसरा
भाग
–
मन
का
अतिक्रमण
कैसे
करना
है।
दूसरा
चरण
है,
मन
के
पार
जाना।
इसमें
वे
योग
के
अंतरंग
साधनों
–
धारणा,
ध्यान
तथा
समाधि
को
मानते
हैं।
आगे
उनका
कहना
है
कि
मन
के
पार
है
स्वभाव
जो
कि
अस्तित्व
का
केंद्र
भी
है।
-
तीसरा
भाग
–
स्वयं
के
अस्तित्व
से
कैसे
मिलना
है।
इस
प्रकार
चेतना
का
वास्तविक
स्वरूप
की
ही
उपलब्धि
ही
कैवल्य
या
निर्बीज
समाधि
है।
भाग
4, पृ.49-50
आधुनिक
मनोविज्ञान
कहना
है
कि
चेतना
के
दो
भेद
हैं
–
चेतन
और
अवचेतन।
लेकिन
योग
का
मनोविज्ञान
कहना
है
कि
एक
और
भेद
है
–
औऱ
वह
है
परम
चेतना।
भाग
4, पृ.147
तुम
शरीर
और
चेतना
दोनों
में
हो।
भाग
4, पृ.
82
संसार
से
थक
जाना
स्वाभाविक
है।
मुक्ति
की
खोज
करना
एकदम
स्वाभाविक
है,
इसमें
कुछ
भी
विशिष्टता
नहीं
है।
भाग
4, पृ.
99
|
|
|
मन |
|
|
मन
स्वंय
एक
पुनरुक्ति
है।
मन
कभी
भी
मौलिक
नहीं
हो
सकता
है।
मन
कभी
भी
स्वाभाविक
नहीं
हो
सकता
है,
मन
का
स्वभाव
ही
ऐसा
है।
मन
एक
उधार
वस्तु
है।
मन
का
अर्थ
होता
है,
सब
कुछ
जाना-पहचाना,
ज्ञात,
जड़।
और
तुम
अज्ञात
हो।
अगर
तुम
इसे
समझ
लो,
तो
तुम
मन
का
उपयोग
कर
सकते
हो
और
तब
मन
तुम्हारा
उपयोग
कभी
न
कर
सकेगा।
भाग
4, पृ.111
योग
में
मन
भी
विभक्त
है
:
मन
का
एक
हिस्सा
पुरुष
है,
मन
का
दूसरा
हिस्सा
स्त्री
है।
औऱ
व्यक्ति
को
सूर्य
से
चंद्र
की
ओर
बढ़ना
है,
औऱ
अंत
में
दोनों
के
भी
पार
जाना
है,
दोनों
का
अतिक्रमण
करना
है।
भाग
4, पृ.241
यह
जो
मन
है
वह
योग
के
पथ
पर
प्रवेश
नहीं
कर
सकता
है
क्योंकि
योग
सत्य
को
उद्घाटित
करने
की
एक
पद्धति
है।
योग
तो
एक
विधि
है
स्वप्नविहीन
मन
तक
पहुँचने
की।
योग
विज्ञान
है
–
अभी
औऱ
यहाँ
होने
का
।
योग
का
अर्थ
है
कि
अब
तुम
तैयार
है
कि
भविष्य
की
कल्पनी
न
करोगे।
इसका
अर्थ
है
कि
तुम्हारी
वह
अवस्था
है
कि
अभ
तुम
न
आशाएं
बाँधोके
और
न
स्वयं
की
सत्ता
से,
वर्तमान
क्षण
में
छलांग
लगाओगे।
योग
का
अर्थ
है
:
सत्य
का
साक्षात्कार
–
जैसा
वह
है।
भाग
1, पृ.5
आदमी
केवल
चेतन
मन
ही
नहीं
है।
उसके
पास
चेतन
से
नौ
गुना
ज्यादा,
मन
की
अचेतन
परत
भी
है।।
केवल
यही
नहीं,
आदमी
के
पास
शरीर
है
–
जिसमें
यह
मन
विद्यमान
होता
है।
शरीर
नितांत
अचेतन
है।
उसका
कार्य
लगभग
अनैच्छिक
है।
केवल
शरीर
की
सतह
ऐच्छिक
है।
भाग
1, पृ.129
|
|
|
सत्य,
चेतना
औऱ
होशपूर्णता |
|
|
सत्य
का
कोई
मार्ग
नहीं
है,
सत्य
का
द्वार
तो
द्वार
विहीन
द्वार
है
–
औऱ
उस
द्वार
तक
पहुँचने
की
केवल
एक
विधी
है
और
वह
है
होशपूर्ण,
जागरूक
और
सचेत
होने
की।
भाग 4,
पृ.164
सत्य
सोचने
विचारने
की
बात
नहीं
है,
सत्
को
तो
केवल
जीया
जा
सकता
है।
सत्य
तो
पहले
से
ही
विद्यमान
है,
उसके
विषय
में
सोचने
का
कोई
उपाय
नहीं।
जितना
ज्यादा
हम
सत्य
के
विषय
में
सोचेंगे,
उतने
ही
हम
सत्य
से
दूर
होते
चले
जाएँगे।.............
सत्य
के
बारे
में
सोचना
ऐसा
है
जैसे
आकाश
में
बादल
भटकते
रहते
हैं।
भाग
4, पृ.271
मैं
एक
झूठ
हूँ,
और
पूर्ण
झूठ
हूँ
–
और
जो
कह
रहा
हूँ
यह
भी
एक
झूठ
ही
है।
भाग
4, पृ.268
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चेतना
की
अभिव्यक्ति
की
चार
अवस्थायें |
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त्रिगुणात्मकता
तथा
चेतना
की
अभिव्यक्ति
की
चार
अवस्थायें
तीन
गुण
हैं
–
प्रकाश
(थिरता),
सक्रियता
औऱ
निष्क्रियता
–
इनकी
चार
अवस्थायें
हैं
:
निश्चित,
अनिश्चित,
सांकेतिक
और
अव्यक्त।
-
निश्चित
–
पदार्थ
की
अवस्था
(वस्तु
जगत)
-
अनिश्चित
–
मन
यह
सांकेतिक
है।
इसकी
निश्चित
अवस्थिति
नहीं
होने
से
अनिश्चित
कहते
हैं।
-
सांकेतिक
–
आत्मा
(केवल
संकेत
दिया
जा
सकता
है।)
-
असांकेतिक
–
अव्यक्त
जो
अनात्मा
है।
भाग
3, पृ.13
ध्यान
आंतरिक
स्नान
है
चेतना
का,
और
स्नान
शरीर
के
लिये
ध्यान
है।
भाग
3, पृ.35
सत्य
और
असत्य
के
बीच
भेद
करने
के
सतत
अभ्यास
द्वारा
अज्ञान
का
विसर्जन
होता
है।
भाग
3, पृ.54
मन
की
चार
अवस्थितियाँ
परम
मन
जो
भविष्य
की
संभावना
है
जिसके
केवल
बीज
लिये
हुए
हो।
चेतन
मन
–
जिसके
द्वारा
विचार
किया
जाता
है,
सोचा,
, तर्क,
संदेह
आस्था
निर्णय
आदि
लिया
जाता
है,
शिक्षक
और
विद्यार्थी
चेतन
मन
में
अस्तित्व
रखते
हैं।
उपचेतन
–
चेतन
के
नीचे।
वह
द्वार
खुलना
संभव
है
यदि
तुम
प्रेम
करो,
अचेतन
–
तर्क
प्रथम
द्वार
खोल
देता
है,
प्रेम
द्वितीय
द्वार
खोल
देता
है,
एवं
समर्पण
तृतीय
द्वार
खोल
देता
है।
एवं
चौथा
द्वार
तुम्हारे
बाहर
होता
है।
चौथे
द्वार
के
तुमसे
कुछ
लेना
देना
नहीं
वह
है
परम
चेतना।
भाग
1, पृ.
चेतना
का
स्वरूप
तथा
उसकी
उपलब्धि
क्या
यह
संभव
है
कि
कोई
साधक
कुछ
समय
के
लिये
शुद्ध
चेतना
की
स्थिति
में
रहे
औऱ
फिर
वापस
आ
जाये।
जब
शुद्ध
चैतन्य
उपलब्ध
हो
जाता
है
तो
हमेशा-हमेशा
के
लिये
उपलब्ध
हो
जाता
है।.............शुद्ध
चैतन्य
में
प्रवेश
करते
ही
अहंकार
मिट
जाता
है,
स्व
पूरी
तरह
तिरोहित
हो
जाता
है।
तो
कौन
आएगा
वापस।
भाग
3, पृ.311
मन
या
चेतना
की
चार
अवस्थायें
(हृदय
गति
के
सम्बन्ध
में)
1.
जाग्रत
–
साधारण
अवस्था
आवर्तन
18 से
30 प्रति
सेकेण्ड
2.
अल्फा
अवस्था
–
निष्क्रिय
अवस्था,
विश्राम
की
अवस्था,
प्रार्थना
या
ध्यान
की
स्थिति
आवर्तन
14 से
18 प्रति
सेकेण्ड
इसका
नाम
अल्फा
किया
है।
3.
थीटा
अवस्था
–
सक्रियता
और
भी
कम
आवर्तन
8 से
14 प्रति
सेकेण्ड
जैसे
उनींदापन,
तन्द्रा,
नशे
की
अवस्था(जैसे
शराबी)
कहां
जा
रहा
है
क्या
कर
रहा
है,
स्पष्ट
बोध
नहीं
है।
बहुत
गहरे
ध्यान
में
इस
अवस्था
अर्थात्
अल्फा
से
बीटा
तक
उतरा
जा
सकता
है।
4.
डेल्टा
अवस्था
–
सक्रियता
और
भी
कम,
आवर्तन
0 से
4 प्रति
सेकेण्ड
मन
करीब
करीब
रूक
गया
।
ऐसे
क्षण
होते
हैं
जब
वह
शून्य
बिंदु
छू
लेता
है।
इसे
ही
समाधि
की
अवस्था
कहा
जाता
है।
ई.ई.जी.
रेकार्ड्स
के
द्वारा
इनको
मापा
जा
सकता
है
–
इसका
उदाहरण
ओशो
देते
हैं।
-
भाग
3, पृ.351
सत्य
है
तुम्हारा
चैतन्य।
बाकी
हर
चीज
का
अतिक्रमण
करना
है।
यदि
तुम
इसे
याद
रख
सको,
तो
तुम्हें
सभी
अनुभवों
से
गुजरना
है,
लेकिन
तुम्हें
उनके
पार
जाना
है।
ओशो
- चेतना
से
सम्बन्धित
विभिन्न
पद
-
सेल्फ
कान्शसनेस
-
सेल्फ
अवेयरनेस
-
रिमेम्बरिंग
-
साक्षी
में
अंतर
-
भाग
3, पृ.361
सेल्फ
कान्शसनेस
में
जोर
है
सेल्फ
पर,
अहं
पर
सेल्फ
अवेयरनेस
में
जोर
है
अवेयरनेस
पर
सजगता
पर।
यदि
जोर
सेल्फ
पर
है
तो
वह
रोग
है।
यदि
जोर
कान्शसनेस
पर
है
तो
वह
स्वास्थ्य
है।
भाग
3, पृ.361
साक्षी
होना
प्राणायाम
का
चौथा
प्रकार
भी
है-
जो
कि
साक्षी
होना
है-
यह
आंतरिक
होता
है
और
प्रथम
तीन
के
पार
जाता
है।
भाग 3,
पृ.344
आत्म
विश्लेषण
तथा
आत्मस्मरण
में
अन्तर
भाग
3, पृ.303
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