मानव
चेतना
की
सापेक्षता
योगनन्दजी
मानव
चेतना
की
सापेक्षता
को
वर्णित
करते
हैं।
उनका
कहना
है
कि
एक
योगी,
जिसने
पूर्ण
ध्यान
द्वारा
अपनी
चेतना
को
सृष्टि
कर्ता
के
साथ
विलीन
कर
लिया
है,
विश्व
सम्बन्धी
तत्त्व
को
प्रकाश(जीवन
शक्ति
का
स्पन्दन)
के
रूप
में
अनुभव
करता
है।
उसके
लिये
जल
की
रचना
करने
वाली
प्रकाश
किरणों
और
भूमि
की
रचना
करने
वाली
प्रकाश
किरणों
के
बीच
कोई
अन्तर
नहीं
है।
पदार्थ
चेतना
से
मुक्त
आकाश
के
तीन
तथा
काल
के
चौथे
आयाम
से
मुक्त
सिद्द
पुरुष
अपनी
देह
को
पृथ्वी
जल,
अग्नि
और
वायु
की
प्रकाश
किरणों
के
बीच
में
या
ऊपर
से
समान
सरलता
के
साथ
परिचालित
कर
सकता
है।
चैतन्य
का
स्वरूप
–
स्थूल,
सूक्ष्म,
कारण
तथा
आत्मा
स्वरूप
-
भौतिक
शरीर
-
सूक्ष्म
शरीर
-
कारण
शरीर
-
आत्मा
सूक्ष्म
शरीर
शीत
या
ताप
या
किसी
अन्य
प्राकृतिक
अवस्था
के
वशीभूत
नहीं
होता
।
सूक्ष्म
शरीर
में
सूक्ष्म
मस्तिष्क
होता
है,
जहाँ
आलोक-निर्मित
सर्वदर्शी
सहस्रदल
कमल
आंशिक
रूप
से
क्रियाशील
रहता
है।।
उस
शरीर
में
सुषुण्ना
अथवा
सूक्ष्म
मेरुदण्ड
में
स्थित
छः
विकसित
पद्म
या
चक्र
भी
होते
हैं।
सूक्ष्म
शरीर
अधिकांशतः
अन्तिम
भौतिक
शरीर
की
यथार्थ
प्रतिमूर्ति
होता
है।
सूक्ष्म
जीवों
का
मुख
और
शरीर
उनके
पूर्वजन्म
के
यौवन
कालीन
पार्थिव
शरीर
के
सदृश
होता
है।..........
सूक्ष्म
प्रदेश
का
अनुभव
अन्तर्ज्ञान
द्वारा
होता
है।
सारे
सूक्ष्म
शरीरी
केवल
अन्तर्ज्ञान
द्वारा
ही
शब्द,
स्पर्श
आधि
का
अनुभव
करते
है।
उनके
तीन
नेत्र
होते
हैं।
जनिमें
से
दो
नेत्र
अर्धनिमीलित
रहते
हैं।
तीसरा
औऱ
मुख्य
सूक्ष्म
नेत्र,
जो
भ्रूमध्य
में
सीधा
स्थित
हो
खुला
रहता
है।
भौतिक
मृत्यु
होते
ही
श्वास
का
लोप
हो
जाता
है
और
शरीर
कोश
विघटित
हो
जाते
हैं।
सूक्ष्म
देह
की
मृत्यु
होने
पर
प्राण
कणिकायें
बिखर
जाती
हैं।
यो
प्राण
कणिकाएँ
ही
स्पष्टतः
विश्वशक्ति
की
इकाईयाँ
है.....।
सूक्ष्म
शरीर
के
उन्नीस
तत्त्व
मनोमय,
भावमय
और
प्राणमय
हैं।
ये
उन्नीस
उपादान
हैं
–
बुद्धि,
अहंकार,
चित्त,
मानस(इन्द्रिय
चैतन्य),
पाँच
ज्ञानेन्द्रियाँ,
पाँच
कर्मेन्द्रियाँ
एवं
पंच
प्राणवायु।
सोलह
स्थूल
रासायनिक
उपादानों
से
गठित
भौतिक
शरीर
के
बाद
भी
उन्नीस
तत्त्वों
का
यह
सूक्ष्म
शरीर
बना
रहता
है।
कारण
शरीर
के
पैंतीस
भाव
विभागों
में
ईश्वर
ने
मनुष्य
के
उन्नीस
सूक्ष्म
और
सोलह
भौतिक
प्रतिरूपों
की
सारी
जटिलताऔं
का
समावेश
किया
है।
स्पन्दन
शक्तियों
को
घनीभूत
कर
पहले
सूक्ष्म
और
फिर
स्थूल
उन्होंने
मनुष्य
के
सूक्ष्म
शरीर
का
और
अन्त
में
स्थूल
शरीर
का
निर्माण
किया।
कारण
जगत
अवर्णनीय
रूप
से
सूक्ष्म
है।
जो
कुछ
एक
मनुष्य
कल्पना
कर
सकता
है
वही
एक
कारण
शरीर
धारी
जीव
वास्तव
में
कर
सकता
है।
तीनों
ही
शरीर
आत्मा
का
पिंजड़ा
कहा
है।
जिस
संयोजक
शक्ति
द्वारा
तीनों
शरीर
एक
साथ
संलग्न
रहते
हैं
वह
है
इच्छा।
अतृप्त
इच्छाओं
को
सक्रिय
करने
वाली
शक्ति
ही
मनुष्य
के
दासत्व
का
मूल
है।
इन
तीन
शरीरों
के
कोशों
से
बाहर
निकल
आने
के
उपरान्त
आत्मा
सदा
के
लिये
सापेक्षता
के
नियम
से
परे
हो
जाती
है
और
अनिर्वचनीय
शाश्वत
विद्यमानता
को
प्राप्त
कर
लेती
है।
जब
जीव
इन
तीनों
मायारूपी
शरीर
घटों
से
बाहर
निकल
जाता
है,
तब
वह
अपना
व्यक्तित्व
न
खोकर
परमात्मा
के
साथ
एकाकार
हो
जाता
है।
-
पृ.603
सूक्ष्म
जीव
कारण
जगत्
में
केवल
तभी
रह
सकता
है
जब
आकर्षक
सूक्ष्म
जगत
का
अनुभव
लेने
की
उसे
उच्छा
न
रह
गयी
हो।
और
वह
पुनः
सूक्ष्म
जगत्
में
लौट
जाने
के
लिये
प्रलोभित
न
हो
सके।
कारण
जगत
के
सारे
कारणकर्मफल
या
अतीत
की
वासनाओं
के
बीजों
का
क्षय
करने
के
बाद
आत्मा
अज्ञान
के
तीसरे
और
अन्तिम
बन्धन
को
तोड़करने
के
बाद
बद्ध
आत्मा
अज्ञान
के
तीसरे
और
अन्तम
बन्धन
को
तोड़
कर
कारण
शरीर
के
अन्तिम
घट
से
मुक्त
हो
अनन्त
पुरुष
में
विलीन
हो
जाती
है।
अहंकार
और
इन्द्रियसुख
ही
भौतिक
कामनाओं
की
जड़
है।
सूक्ष्म
जगत
की
आसक्तियों
या
कारण
अवस्था
की
कल्पनायों
से
सम्बन्धित
वासना
की
अपेक्षा
वि,यानुबूति
का
प्रलोभन
तथा
दबाव
अधिक
शक्तिशाली
है।
आत्मा
नैसर्गिक
रूप
से
ही
अदृश्य
है।
अतः
उसे
उसके
शरीर
या
शरीरों
के
अस्तित्व
से
ही
पहचाना
जा
सकता
है।
शरीर
के
अस्तित्व
मात्र
का
यह
अर्थ
है
कि
इसकी
उपस्थिति
की
सम्भाव्यात
अतृप्त
इच्छाओं
पर
निर्भर
है।
-
पृ.600
जब
तक
जीव
एक
दो
या
तीन
शरीर
पिंजरों
में
आबद्ध
है,
जो
अज्ञान
और
वासनाओं
से
मुहरबंद
हैं,
तब
तक
बह
परमात्मा
में
विलीन
नहीं
हो
सकता।
तब
मृत्यु
की
चोट
से
स्थूल
पार्थिव
शरीर
चूर्ण
हो
जाता
है,
तब
भी
शेष
दोनों
आवरण
–
सूक्ष्म
औऱ
कारण
शरीर-वर्तमान
रहते
हैं
औऱ
मात्मा
को
सज्ञान
रूप
से
सर्वव्यपी
जीवन
के
साथ
मिल
जाने
से
रोकते
हैं।
जब
इच्छारहितता
ज्ञान
के
द्वारा
प्राप्त
होती
है,
तब
उसकी
शक्ति
शेष
दोनों
आवरणों
को
छिन्न
भिन्न
कर
देती
है।
सीमित
मानव
आत्मा
अन्त
में
मुक्त
होकर
बाहर
निकल
पड़ती
है
और
अनन्त
परमात्मा
के
साथ
एकाकार
हो
जाती
है।
-
पृ.601
रात
में
मनुष्य
स्वप्न
चैतन्य
की
अवस्था
में
प्रवेश
करता
है,
और
दिन
मे
जो
झूठी
अहंवादी
सीमाएँ
उसे
घेरे
रहती
हैं
उनसे
मुक्त
हो
जाता
है।
निद्रावस्था
में
बह
अपने
मन
की
सर्वशक्तिमत्ता
का
सदैव
पुनरावर्तक
प्रदर्शन
करता
है.
देखो,
स्वप्न
में
उसके
दीर्घ
समय
के
मृत
मित्र,
दूरवर्ती
महाद्वीप,
उसके
पुनरुत्थित
बाल्यावस्था
के
दृश्य
प्रकट
होते
है।
वह
मुक्त
औऱ
अप्रतिबन्ध
चैतन्य
जिसका
संक्षेपमें
अनुभव
सब
मनुष्यों
को
स्वप्नावस्था
में
होता
है,
एक
ईश्वर
विलीन
सन्त
री
स्थायी
तथा
सम्पूर्ण
मनोवस्था
है।
काल
और
देश
का
स्वामी
, सब
व्यक्तिगत
अभिप्रायों
से
अलिप्त
योगी
स्रष्टा
द्वारा
प्रदान
की
हुई
सृजनात्मक
इच्छाशक्ति
का
प्रयोग
करके
विश्व
के
प्रकाशाणुओं
को
किसी
भी
भक्त
की
सच्ची
प्रार्थना
को
पूर्ण
करने
के
लिये
पुनः
व्यवस्थित
करता
है।
-
पृ.394
प्रयोजन
ईश्वर
ने
आत्मा
और
शरीर
का
संयोग
क्यों
किया
?
सृष्टि
के
इस
विवर्तनशील
नाटक
को
आरम्भिक
गति
प्रदान
करने
में
उनका
क्या
उद्देश्य
था
?
“कुछ
रहस्यों
को
अनन्त
में
ही
खोज
के
लिये
छोड़
दो।
मनुष्य
की
सीमित
तर्कशक्ति
‘अजन्मा
पूर्णब्रह्म’
के
अकल्पनीय
उद्देश्यों
को
कैसे
समझ
सकती
है।.......................यद्यपि
मनुष्य
की
युक्ति
सृष्टि
के
रहस्यों
को
नहीं
भेद
सकती
तथापि
अन्ततः
ईश्वर
ही
भक्त
के
सामने
हर
रहस्य
को
हल
कर
देंगे।
-
पृ.694
|