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CONTENTS
|जीवन-परिचय, ग्रन्थ, स्थापित संस्थाए
|योग पर सामान्य विचार
|वास्तविक योग : क्रियायोग|
क्रियायोग महत्
|"ऑटोबायग्राफ़ी ऑफ़ ए योगी" ग्रन्थ से प्रमुख उद्धहरण एवं विचार|

योग के आधुनिक चिन्तक तथा ग्रन्थ - 1

योगानन्दजी

"ऑटोबायग्राफ़ी ऑफ़ ए योगी" के रचयितॉ

अन्य लिंक : योगानन्दजी | ओशो रजनीश | जे. कृष्णमूर्ति |महर्षि महे योगी

जीवन-परिचय, ग्रन्थ, स्थापित संस्थाएँ

जीवन-परिचय

जन्म 1893–1952,    स्थान - गोरखपुर

स्वामी संप्रदाय की गिरी शाखा के अन्तर्गत दीक्षित हुये।

प्रमुख ग्रन्थ 

  1. Autobiography of a Yogi (1946)
  2. ‘The Holy Science”

बाइबिल और सनातन धर्म के शास्त्रों की तुलनात्मक समालोचना पूर्वक लिखा गया ग्रन्थ जिसमें ईसा मसीह की वाणी का उद्धहरण देकर एवं उनके उपदेशों के सारांश और  वेदों में अन्तर्निहित सत्य को  मूलतः एक बताया है।

  1. Whispers from Eternity.
  2. World Religion Conference 1920 दिसिटी ऑफ स्पार्टा में व्याख्यान।

संस्थायें तथा योग की विकसित प्राणालियाँ 

  1. योगदा संत्संग विद्यालय, राँची 

इस विद्यालय में योग की विशिष्ट प्राणीली जिसे वे योगदा प्राणाली कहते हैं, की शिक्षा 1916 में उनके द्वारा अविष्कृत की गयी

  1. Self-Realization Fellowship, 1925 लॉस एंजिल्स, कैलीफोर्निया, अमेरिका।

योग पर सामान्य विचार

योगानन्द जी का स्पष्ट कथन है कि योग की मूलभूत कल्पनाओं का अनुसरण किये बना योग-साधना का कोई अर्थ नहीं रह जाता। योग शारीरिक और आध्यात्मिक भावों में परस्पर अपूर्व सुसामंजस्य स्थापित करता है। [1] योगानन्द जी का यह भी मानना है कि अन्य सभी विज्ञानों की भाँति योग की साधना प्रत्येक देश और काल के लोग कर सकते हैं। [2] योग की व्यवहारिक-सिद्ध प्रक्रियाओं की साधना से मनुष्य कल्पना के ऊसर-प्रदेश को सदा के लिये पीछे छोड़कर परम तत्त्व की प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त करता है। योगविज्ञान सभी प्रकार के एकाग्रता और ध्यान धारणा के अनुभव सिद्ध विचारों पर आधारित है। योग द्वारा साधक इच्छानुसार प्राणशक्ति का पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के साथ संयोग करने या उनसे खींच लेने में समर्थ बन जाता है। इन्द्रिय विच्छेद की इस शक्ति को प्राप्त कर लेने पर योगी अपने मन को दिव्य या भौतिक जगत के साथ इच्छानुसार संयुकत् कर सकता है। अब इसे इच्छा के विपरीत प्राण शक्ति के द्वारा आकृष्ट कर इन्द्रिय क्षोभ और अशान्त विचारों वाले पार्थिव जगत में बलात् नहीं लौटाया जा सकता।[3]  

योगनन्द जी निद्रा का भी विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं, उनका कहना है कि निद्रा से जो नवस्फूर्ति प्राप्त होती है, उसका कारण है शरीर और श्वसन के प्रति मनुष्य का अस्थायी रूप से अचेतन होना। निद्रावस्था में श्वास-प्रश्वास की गति अधिक धीमी और सम रहती है। सोया हुया व्यक्ति योगी हो जाता है, प्रत्येक रात्रि को वह अचेतन रूप में स्वयं को देहात्म बोध से मुक्त करने तथा स्वस्थप्रदायिनी प्राणश्ति को अपने मस्तिष्क के मुख्य भाग(सहस्रार) एवं मेरुदण्डीय केन्द्रों के छः चक्रोंमें संप्रवाहित करने की यौगक क्रिया सम्पन्न किया करता है। इस प्रकार अनजाने ही निद्रालीन व्यक्ति सर्वप्राणधारिणी विश्वशक्ति से प्रतिपूरित हो जाता है।[4]


 

[1]           योगीकथामृत (A autobiography of Yogi by Yogananda), - पृ.322

[2]         पृ. 328

[3]           वही, पृ.353

[4]           वही, पृ.351

वास्तविक योग : क्रियायोग योगानन्दजी

योगनन्द जी ने जो यौगिक विधि विश्व को दी उसे उन्होंने क्रियायोग से अभिहित किया है। क्रिया योग के सम्बन्ध में वे कहते हैं कि क्रियायोग एक सरल मनःकायिक प्रणाली है, जिसके द्वारा मानव-रक्त कार्बन से रहित तथा ऑक्सीजन से प्रपूरित हो जाता है। इसके अतिर्कत ऑक्सीजन के अणु जीवन प्रवाह में रूपान्तरित होकर मस्तिष्क और मेरूदण्ड के चक्रों को नवशक्ति से पुनः पूरित कर देते है। 

भगवद्गीता तथा योगसूत्र में दो बार क्रिया योग का वर्णन  आता है  

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणे अपानें तथापरे

प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।

-    गीता, IV,29

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।

प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।।

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।

विगेताच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।

-     गीता V , 27-28

योग के श्रेष्ठतम शास्त्रकार ऋषि पतञ्जलि ने दो बार क्रियायोग का उल्लेख किया है

तपस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः। - योगसूत्र 2,1 

पतञ्जलि ने दुबारा भी क्रिया की प्रविधि या प्राण संयम की इस प्रकार चर्चा की है उस प्राणायाम के द्वारा मुक्ति प्राप्त की जा सकती है, जो श्वास और प्रश्वास के गति विच्छेद से निष्पन्न होता है। 

तस्मिन्सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।

- योगसूत्र 2,49 

स्वेच्छिक योगी एक साधारण प्राकृतिक प्रक्रिया चेतन रूप से पूर्ण करता है, कि अचेतन रूप से एक मन्दगित , सोनेवाले योगी की भाँति। क्रियायोगी अपने समस्त शारीरिक कोशों को अक्षय ज्योति से आपूरित तथा तृप्त करने के लिये अपनी प्रविधि का प्रयोग करता है और इस प्रकार उन्हें  आध्यात्मिक चुम्बकावेश की स्थिति में बनाये रखता है। वब बैज्ञानिक रूप से श्वसन-क्रिया को अनावश्यक बना देता है। और अपनी साधना के समय में निद्रा, अचेतना अथवा मृत्यु की निष्क्रिय अवस्थामें नहीं जा प्रवेश करता [1]                                                                

क्रियायोग का सिद्धान्त शाश्वत है। यहि गणित के समान सत्य है। जोड़ने घटाने के साधारण नियमों के समान क्रियायोग की विधि भी कभी नष्ट नहीं हो सकती भले ही गणित की सारी पुस्तकें जल कर राख हो जायँ पर मानव मस्तिष्क तर्क द्वार इसके सारे स्तों को खोज निकालेगा। इसी तरह योग विषयक सारी पुस्तके नष्ट कर डाली जायें, किन्तु जबब कभी शुद्ध भक्ति और तज्जनित शुद्ध ज्ञान से युक्त किसी योगी का अविर्भाव होगा, वब योग की मूलभूत विधियों का पुनः आविष्कार कर लेगा।


 

[1]           योगीकथामृत, पृ.351

 

क्रियायोग महत्व

 
 

प्रत्यक्ष प्राणशक्तिके द्वारा मन को नियन्त्रित करनेवाला क्रियायोग अनन्त तक पहुँचने के लिये सबसे सरल प्रभावकारी और अत्यन्त वैज्ञानिक मार्ग है। बैलगाड़ी के समीन धीमी और अनिश्चित गति वाले धार्मिक मार्गों की तुलना में क्रियायोग द्वारा ईश्वर तक पहुँचने के मार्ग को विमान मार्ग कहना उचित होगा।[1] क्रियायोग की प्रक्रिया का आगे विश्लेषम करते हुये वे कहते हैं कि मनुष्य की श्वसन गति और उसकी चेतना की भिन्न भिन्न स्थिति के बीत गणितानुसारी सम्बन्ध होने के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। ................. मन की एकाग्रता धीमे श्वसन पर निर्भर है। तेज या विषम श्वास भय, कामा क्रोध आदि हानिकर भावावेगों की अवस्था का सहचर है।[2]


 

[1]           वहीं, पृ.353

[2]           पृ.350

 
 

"ऑटोबायग्राफ़ी ऑफ़ ए योगी" ग्रन्थ से प्रमुख उद्धहरण एवं विचार

 
 

मानव चेतना की सापेक्षता 

योगनन्दजी मानव चेतना की सापेक्षता को वर्णित करते हैं। उनका कहना है कि एक योगी, जिसने पूर्ण ध्यान द्वारा अपनी चेतना को सृष्टि कर्ता के साथ विलीन कर लिया है, विश्व सम्बन्धी तत्त्व को प्रकाश(जीवन शक्ति का स्पन्दन) के रूप में अनुभव करता है। उसके लिये जल की रचना करने वाली प्रकाश किरणों और भूमि की रचना करने वाली प्रकाश किरणों के बीच कोई अन्तर नहीं है। पदार्थ चेतना से मुक्त आकाश के तीन तथा काल के चौथे आयाम से मुक्त सिद्द पुरुष अपनी देह को पृथ्वी जल, अग्नि और वायु की प्रकाश किरणों के बीच में या ऊपर से समान सरलता के साथ परिचालित कर सकता है।[1] 

चैतन्य का स्वरूप स्थूल, सूक्ष्म, कारण तथा आत्मा स्वरूप 

  1. भौतिक शरीर
  2. सूक्ष्म शरीर
  3. कारण शरीर
  4. आत्मा

सूक्ष्म शरीर शीत या ताप या किसी अन्य प्राकृतिक अवस्था के वशीभूत नहीं होता सूक्ष्म शरीर में सूक्ष्म मस्तिष्क होता है, जहाँ आलोक-निर्मित सर्वदर्शी सहस्रदल कमल आंशिक रूप से क्रियाशील रहता है।। उस शरीर में सुषुण्ना अथवा सूक्ष्म मेरुदण्ड में स्थित छः विकसित पद्म या चक्र भी होते हैं।

सूक्ष्म शरीर अधिकांशतः अन्तिम भौतिक शरीर की यथार्थ प्रतिमूर्ति होता है। सूक्ष्म जीवों का मुख और शरीर उनके पूर्वजन्म के यौवन कालीन पार्थिव शरीर के सदृश होता है।.......... सूक्ष्म प्रदेश का अनुभव अन्तर्ज्ञान द्वारा होता है। सारे सूक्ष्म शरीरी केवल अन्तर्ज्ञान द्वारा ही शब्द, स्पर्श आधि का अनुभव करते है। उनके तीन नेत्र होते हैं। जनिमें से दो नेत्र अर्धनिमीलित रहते हैं। तीसरा औऱ मुख्य सूक्ष्म नेत्र, जो भ्रूमध्य में सीधा स्थित हो खुला रहता है। भौतिक मृत्यु होते ही श्वास का लोप हो जाता है और शरीर कोश विघटित हो जाते हैं। सूक्ष्म देह की मृत्यु होने पर प्राण कणिकायें बिखर जाती हैं। यो प्राण कणिकाएँ ही स्पष्टतः विश्वशक्ति की इकाईयाँ है.....[2]   

सूक्ष्म शरीर के उन्नीस तत्त्व मनोमय, भावमय और प्राणमय हैं। ये उन्नीस उपादान हैं बुद्धि, अहंकार, चित्त, मानस(इन्द्रिय चैतन्य), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ एवं पंच प्राणवायु। सोलह स्थूल रासायनिक उपादानों से गठित भौतिक शरीर के बाद भी उन्नीस तत्त्वों का यह सूक्ष्म शरीर बना रहता है। 

कारण शरीर के पैंतीस भाव विभागों में ईश्वर ने मनुष्य के उन्नीस सूक्ष्म और सोलह भौतिक प्रतिरूपों की सारी जटिलताऔं का समावेश किया है। स्पन्दन शक्तियों को घनीभूत कर पहले सूक्ष्म और फिर स्थूल उन्होंने मनुष्य के सूक्ष्म शरीर का और अन्त में स्थूल शरीर का निर्माण किया। कारण जगत अवर्णनीय रूप से सूक्ष्म है। जो कुछ एक मनुष्य कल्पना कर सकता है वही एक कारण शरीर धारी जीव वास्तव में कर सकता है।[3]

तीनों ही शरीर आत्मा का पिंजड़ा कहा है। जिस संयोजक शक्ति द्वारा तीनों शरीर एक साथ संलग्न रहते हैं वह है इच्छा। अतृप्त इच्छाओं को सक्रिय करने वाली शक्ति ही मनुष्य के दासत्व का मूल है।

इन तीन शरीरों के कोशों से बाहर निकल आने के उपरान्त आत्मा सदा के लिये सापेक्षता के नियम से परे हो जाती है और अनिर्वचनीय शाश्वत विद्यमानता को प्राप्त कर लेती है। जब जीव इन तीनों मायारूपी शरीर घटों से बाहर निकल जाता है, तब वह अपना व्यक्तित्व खोकर परमात्मा के साथ एकाकार हो जाता है।

-   पृ.603

सूक्ष्म जीव कारण जगत् में केवल तभी रह सकता है जब आकर्षक सूक्ष्म जगत का अनुभव लेने की उसे उच्छा रह गयी हो। और वह पुनः सूक्ष्म जगत् में लौट जाने के लिये प्रलोभित हो सके। कारण जगत के सारे कारणकर्मफल या अतीत की वासनाओं के बीजों का क्षय  करने के बाद आत्मा अज्ञान के तीसरे और अन्तिम बन्धन को तोड़करने के बाद बद्ध आत्मा अज्ञान के तीसरे और अन्तम बन्धन को तोड़ कर कारण शरीर के अन्तिम घट से मुक्त हो अनन्त पुरुष में विलीन हो जाती है।

अहंकार और इन्द्रियसुख ही भौतिक कामनाओं की जड़ है। सूक्ष्म जगत की आसक्तियों या कारण अवस्था की कल्पनायों से सम्बन्धित वासना की अपेक्षा वि,यानुबूति का प्रलोभन तथा दबाव अधिक शक्तिशाली है। 

आत्मा नैसर्गिक रूप से ही अदृश्य है। अतः उसे उसके शरीर या शरीरों के अस्तित्व से ही पहचाना जा सकता है। शरीर के अस्तित्व मात्र का यह अर्थ है कि इसकी उपस्थिति की सम्भाव्यात अतृप्त इच्छाओं पर निर्भर है।

-   पृ.600

जब तक जीव एक दो या तीन शरीर पिंजरों में आबद्ध है, जो अज्ञान और वासनाओं से मुहरबंद हैं, तब तक बह परमात्मा में विलीन नहीं हो सकता। तब मृत्यु की चोट से स्थूल पार्थिव शरीर चूर्ण हो जाता है, तब भी शेष दोनों आवरण सूक्ष्म औऱ कारण शरीर-वर्तमान रहते हैं औऱ मात्मा को सज्ञान रूप से सर्वव्यपी जीवन के साथ मिल जाने से रोकते हैं। जब इच्छारहितता ज्ञान के द्वारा प्राप्त होती है, तब उसकी शक्ति शेष दोनों आवरणों को छिन्न भिन्न कर देती है। सीमित मानव आत्मा अन्त में मुक्त होकर बाहर निकल पड़ती है और अनन्त परमात्मा के साथ एकाकार हो जाती है।

 -  पृ.601

रात में मनुष्य स्वप्न चैतन्य की अवस्था में प्रवेश करता है, और दिन मे जो झूठी अहंवादी सीमाएँ उसे घेरे रहती हैं उनसे मुक्त हो जाता है। निद्रावस्था में बह अपने मन की सर्वशक्तिमत्ता का सदैव पुनरावर्तक प्रदर्शन करता है. देखो, स्वप्न में उसके दीर्घ समय के मृत मित्र, दूरवर्ती महाद्वीप, उसके पुनरुत्थित बाल्यावस्था के दृश्य प्रकट होते है।

वह मुक्त औऱ अप्रतिबन्ध चैतन्य जिसका संक्षेपमें अनुभव सब मनुष्यों को स्वप्नावस्था में होता है, एक ईश्वर विलीन सन्त री स्थायी तथा सम्पूर्ण मनोवस्था है। काल और देश का स्वामी , सब व्यक्तिगत अभिप्रायों से अलिप्त योगी स्रष्टा द्वारा प्रदान की हुई सृजनात्मक इच्छाशक्ति का प्रयोग करके विश्व के प्रकाशाणुओं को किसी भी भक्त की सच्ची प्रार्थना को पूर्ण करने के लिये पुनः व्यवस्थित करता है।

  - पृ.394

प्रयोजन 

ईश्वर ने आत्मा और शरीर का संयोग क्यों किया ? सृष्टि के इस विवर्तनशील नाटक को आरम्भिक गति प्रदान करने में उनका क्या उद्देश्य था ?

कुछ रहस्यों को अनन्त में ही खोज के लिये छोड़ दो। मनुष्य की सीमित तर्कशक्ति अजन्मा पूर्णब्रह्म के अकल्पनीय उद्देश्यों को कैसे समझ सकती है।.......................यद्यपि मनुष्य की युक्ति सृष्टि के रहस्यों को नहीं भेद सकती तथापि अन्ततः ईश्वर ही भक्त के सामने हर रहस्य को हल कर देंगे।

  - पृ.694


 

[1]           पृ.393

[2]           पृ.592

[3]           पृ.601

 
     

 

 

Authored & Developed By               Dr. Sushim Dubey

&दार्शनिक-साहित्यिक अनुसंधान                      ?  डॉ.सुशिम दुबे,                             G    Yoga

Dr. Sushim Dubey

® This study material is based on the courses  taught by Dr. Sushim Dubey to the Students of M.A. (Yoga) Rani Durgavati University, Jabalpur  and the Students of Diploma in Yoga Studies/Therapy of  Morarji Desai National Institute of Yoga, New Delhi, during 2005-2008 © All rights reserved.