|
|
|
|
|जीवनपरिचय|चेतना,
मन, शिक्षा एवं जीवन|मेधा
(Intelligence), आत्मा|चेतना
या आत्मज्ञान का रहस्य एवं वास्तविक जीवन
|हम अपने आप को कैसे जानें ?|आत्मविस्तार
Vs आत्मज्ञान|
सजगता औऱ संवेदनशीलता में क्या अन्तर है ? Awareness and Senstivity|
|
|
योग के
आधुनिक चिन्तक तथा ग्रन्थ - 2
जे. कृष्णमूर्ति
जे.कृष्णमूर्ति
फाउंडेशन के संस्थापक
अन्य लिंक
:
योगानन्दजी |
ओशो रजनीश
| जे. कृष्णमूर्ति |महर्षि
महेश योगी |
|
जीवनपरिचय
(1895-1986) |
1895,
आन्धप्रदेश
के
छोटे
से
कस्बे
मदनापल्ली
में।
सनातन
तेलुगू
ब्राह्मण
परिवार
से।
किशोरावस्था
में
थियोसॉफिकल
सोसायटी
की
अध्यक्षा
एनी
बेसेंट
ने
गोद
लिया।
ऑर्डर
ऑव
दि
स्टार
ईस्ट
संगठन
का
प्रमुख
बना
कर
विश्व
शिक्षक
के
रूप
में
घोषित
किया।
1922
में
गहरी
अध्यात्मिक
अनुभूति
के
साथ
कृष्णमूर्ति
के
द्वारा
यह
संगठन
भंग
तथा
1921 में
उन्होंने
अपनी
दृष्टि
इस
प्रकार
व्यक्त
की
–
“सत्य
एक
पथहीन
भूमि
है,
वहाँ
तक
आप
किसी
भी
मार्ग,
किसी
भी
धर्म
या
किसी
भी
सम्प्रदाय
के
द्वारा
नहीं
पहुँच
सकते
.......... सत्य
असीमित
तथा
अप्रतिबन्धित
है..............उसे
संगठित
नहीं
किया
जा
सकता।
मेरी
चिन्ता
सिर्फ
मनुष्य
को
परम
रूप
से,
बिना
किसी
प्रतिबन्ध
के
मुक्त
करने
की
है।”
एक
सत्यान्वेषी
के
रूप
में
कृष्णमूर्ति
के
द्वारा
अपना
सारा
जीवन
मनुष्य
को
उसके
प्रतिबन्धन
औऱ
स्वातन्त्र्य
की
सम्भावना
के
प्रति
सचेत
करने
के
लिये
समर्पित
किया।
इसके
लिये
उन्होंने
निरन्तर
व्याख्यान
एवं
लेखों
के
माध्यम
से
अपने
विचार
व्यक्त
किये।
पुपुल
जयकर
तथा
लिटिन्स
ने
कृष्णमूर्ति
की
जीवनी
लिखी
है।
यात्राओं
एवं
वार्ताओं
के
प्रबन्धन
के
लिये
जे.कृष्णमूर्ति
फाउन्डेशन
की
स्थापना
की।
आज
इस
फाउन्डेशन
के
माध्यम
से
देश
तथा
विदेशों
में
विभिन्न
विद्यालयों
तथा
सट्डी
सेन्टर
का
संचालन
हो
रहा
है
जो
कि
कृष्णमूर्ति
की
शिक्षाओं
एवं
मन्तव्यों
के
प्रकाशन
और
संरक्षण
का
दायित्व
भी
निभा
रहे
हैं।
जे.कृष्णमूर्ति
के
दर्शन
को
समझने
हेतु
“की-वर्ड”
– प्रेम,
स्वतन्त्रता,
प्रज्ञा,
चेतना।
|
जे.
कृष्णमूर्ति
–
चेतना,
मन,
शिक्षा एवं जीवन |
जे.
कृष्णमूर्त
–
चेतना
एवं
मन
आपका
मन
मानवी
मन
है
- आपकी
चेतना
समग्र
मानव-चेतना
है।
मानव-मानव
का
भेद
मात्र
सतही
है।
हम
सबकी
चेतना
का
आशय
समूची
मानव
जाति
की
समान
पार्श्वभूमि
है...........हममें
से
प्रत्येक
प्रत्यक्ष
अखिल
मानव
विश्व
ही
है।
जे.कृष्णमूर्ति
जीवन
दर्शन,
पृ.54
शिक्षा
का
अर्थ
है
कि
प्रज्ञा
को
जाग्रत
करना
तथा
समन्वित
जीवन
का
पोषण
करना
औऱ
केवल
ऐसी
ही
शिक्षा
एक
नवीन
संस्कृति
तथा
शान्तिमय
विश्व
की
स्थापना
कर
सकेगी।
जे.
कृष्णमूर्त
–
शिक्षा
एवं
जीवन
का
तात्पर्य
विवेकजन्य
गहरा
मनोवैज्ञानिक
विद्रोह..........
जो
अपने
विचारों
और
भावनाओं
के
प्रति
चेतना
द्वारा
उत्पन्न
आत्मबोध
के
साथ
आता
है।
केवल
तभी
हम
अपने
विवेक
को,
सम्यक
बुद्धि
को
अत्यधिक
जाग्रत
अवस्था
में
रख
सकते
हैं
जब
हम
अपने
अनुभव
वका
जैसे-जैसे
वह
आता
जाता
है
साक्षात्कार
करते
जाते
हैं
और
विक्षोभ
से
बचने
का
प्रयत्न
नहीं
करते,
औऱ
सर्वाधिक
जाग्रत
सम्यक्
बुद्धि
ही
अन्तश्चेतना
होती
है
और
यही
जीवन
की
मार्गदर्शक
होती
है।
शिक्षा
एवं
जीवन
का
तात्पर्य,
पृ.2
वास्तविक
चीज़
हमारे
चित्त
की
गुणवत्ता
और
उसकी
गहराई
है,
न
कि
उसका
ज्ञान
संग्रह।
चित्त
अनन्त-असीम
है,
और
यही
ब्रह्माण्ड
की
प्रकृति
भी
है
जिसकी
अपनी
व्यवस्था
है
और
जिसके
पास
अनन्त
ऊर्जा
है।
अभी
हमारा
मस्तिष्क
ज्ञान
का
गुलाम
है
औऱ
इसीलिये
सीमित
व
खंडित
है।
जब
वह
स्वयं
को
अपनी
संस्कारग्रस्तता
से
मुक्त
कर
लेता
है
तो
अनन्त
औऱ
असीम
हो
जाता
है,
और
तब
चित्त
और
मस्तिष्क
के
बीच
कोई
विभाजन
शेष
नहीं
रह
जाता।
स्कूलों
को
पत्र,
भाग-2,
पृ.13
|
मेधा
(Intelligence),
आत्मा
क्या
है
? |
मेधा(Intelligence)
क्या
है
?
मेधावी
मन
वह
मन
है
जो
न
तो
व्याख्याओं
से
सन्तुष्ट
होता
है
और
निर्णयों
से
संतुष्ट
होता
है
और
न
विश्वास
करता
है,
क्योंकि
विश्वास
भी
एक
प्रकार
का
निरणय
ही
है।
मेधावी
मन
ऐसा
मन
है
जो
सतत
खोज
कर
रहा
है।
संस्कृति
का
प्रश्न,
पृ.12
मेधा
ज्ञान
नहीं
है।
यदि
आपने
सारे
विश्व
की
पुस्तकें
पढ़
ली
हैं
तो
भी
आपमें
मेधा
नहीं
आयेगी।
मेधा
बड़ी
ही
गूढ़
है,
यह
कहीं
नहीं
रुकती
है
इसका
उद्घाटन
तभी
होता
है
जब
आप
मन
की
प्रक्रिया
को
समझ
लेते
हैं।..............................आत्मज्ञान
के
साथ
मेधा
का
आगमन
होता
है।
संस्कृति
का
प्रश्न,
पृ.13
स्वतन्त्र
होने
के
लिये
हमें
अपनी
सम्पूर्ण
आन्तरिक
पराधीनता
के
खिलाफ
विद्रोह
करना
होगा
और
यह
हम
तब
तक
नहीं
कर
सकते
जब
तक
हम
यह
नहीं
समझ
लेते
कि
हम
पराधीन
क्यों
हैं
?
संस्कृति
का
प्रश्न,
पृ.18
आत्मा
क्या
है
?
समयातीत
अवस्था।
आप
स्वंय
यह
खोज
कर
सकते
हैंकि
सचमुच
यह
समयातीत
अवस्था
कोई
है
या
नहीं,
एक
ऐसी
अवस्था
जहाँ
कम
या
अधिक
के
लिये
कोई
गुंजाइश
नहीं
है।
संस्कृति
का
प्रश्न,
पृ.41
|
|
चेतना
या
आत्मज्ञान
का
रहस्य
एवं
वास्तविक
जीवन |
|
|
चेतना
मे
समाये
सारे
घटक
खाली
हो
गये
कि
चेतना
पूर्ण
रिक्त
होकर
जो
अवकाश
शेष
रहता
उसी
में
मन
स्वतंत्र
होता
है।
इस
स्वतंत्रता
में
प्रज्ञा,
समझ
या
अन्तर्दृष्टि
का
द्वार
खुलता
है।
जे.
कृष्णमूर्ति
जीवन-दर्शन,
पृ.56
यदि
आप
अपने
आपको
बिना
निंदा
या
तुलना
किये,
बिना
अधिक
सुन्दर
व
अधिक
गुणी
वनने
की
कामना
किये,
सही
सही
रूप
में
देखते
हैं,
यदि
आपने
आफको
हूबहू
देखते
हैं
और
इसके
साथ
आगे
बढ़ते
हैं,
तब
आप
महसूस
करेंगे
कि
उस
असीम
तक
पहुँचना
संभव
है,
तब
आपकी
यात्रा
का
कोई
अन्त
न
होगा,
औऱ
यही
तो
आत्मज्ञान
का
रहस्य
है,
यही
तो
सौन्दर्य
है।
संस्कृति
का
प्रश्न,
पृ.40
जीवन
एक
अद्भुत
रहस्य
है।
यह
वह
रहस्य
नहीं
जिसे
आप
पुस्तकों
में
पा
सकते
हैं
या
जि,के
सम्बन्ध
में
व्यक्ति
बातें
करते
हैं।
परन्तु
यह
वह
सहस्य
है
जिसका
उद्घाटन
स्वयं
ही
करना
होता
है।
संस्कृति
का
प्रश्न,
पृ.43
वास्तविक
जीवन
क्या
है
?
किसी
वस्तु
को
जिसे
आप
करते
हैं,
अपनी
पूरी
समग्रता
के
साथ
करना
ताकि
आपमें
“आप
जो
कर
रहे
हैं”
और
“जो
आपको
करना
चाहिये”
इनमें
किसी
प्रकार
की
विसंगति
न
हो,
संघर्ष
न
हो।
तब
हमारे
लिये
जीवन
समग्रतामय
हो
जायेगा।
संस्कृति
का
प्रश्न,
पृ.64
प्रश्न
:
आपने
यह
सब
कैसे
सीखा
जिसके
सम्बन्ध
में
आप
चर्चा
कर
रहे
हैं
?
हम
यह
सब
कैसे
सीख
सकते
हैं
?
यह
एक
अच्छा
प्रश्न
है,
है
न
? आब
यदि
मैं
अपने
सम्बन्ध
में
कुठ
बताऊँ
तो
मैं
यह
कहूँगा
कि
मैंने
इसके
लिये
कोई
पुस्कत
नहीं
पढ़ी
है।
मेंने
न
तो
उपनिषद्
पढ़े
हैं,
न
भगवद्गीता
और
न
मनोविज्ञान
शास्त्र
के
सम्बन्ध
में
कुछ
अध्ययन
किया
है।
लेकिन
जैसा
कि
मैंने
आपसे
कहा
कि
अपने
ही
मन
का
निरीक्षण
करें
तो
आपको
यह
ज्ञात
होगा
कि
वहाँ
सब
कुछ
विद्यमान
है।
जब
आप
आत्म
–ज्ञान
की
यात्रा
पर
निकल
जाते
हैं
तो
पुस्तकों
का
महत्व
ही
नहीं
रह
जाता।
……………………….
यह
बहुत
ही
महत्वपूर्ण
प्रश्न
है
क्योंकि
आत्मज्ञान
और
मन
के
निरीक्षण
से
अनुसन्धान
और
बोधक्षमता
का
उद्गम
होता
है।....................
ये
समस्त
बातें
दर्शन
के
समान
हैं,
जिसमें
आप
अपने
वास्तविक
रूप
का
दर्शन
कर
सकते
हैं।
संस्कृति
का
प्रश्न,
पृ.83
|
|
|
हम
अपने
आप
को
कैसे
जानें
? |
|
|
समस्त
शिक्षा
का
मूल
उद्देश्य
ही
अपने
आपको
जानना
है,
अवेयरनेस
सीखने
की
कोई
तकनीक
या
पद्धति
नहीं
होती।
हर
क्षण
समायोजन
करने
से
, मेल
बिठाते
रहने
से
अवेयरनेस
आती
है।
यदि
आप
बदलते
जीवन
के
साथ
जागृत
रहकर
नित्य
समायोजन
करते
रहेंगे,
तो
आप
किसी
भी
पद्धति
का
अनुसरण
नहीं
कर
पायेंगे,
सभी
तरीकों
को
, पद्धतियों
को
आप
नष्ट
कर
देंगे।
यदि
किसी
पद्धति
का
अनुसरण
आप
करते
रहेंगे
तो
कभी
भी
आपको
सत्य
का
अवबोध
नहीं
होगा।
“Consciousness”-कृष्णमूर्ति
एण्ड
दि
यूनिटी
ऑफ
दि
मैन,
कार्ल
सॉरेस।
हम
अपने
वास्तविक
रूप
को
देखें,
उसे
बदलने
का
प्रयास
न
करें,
हम
“जो
हैं”
उसे
देखें
तो
एक
अद्भुत
उद्घाटन
होगा
!
तब
आप
अधिकाधिक
गहराइयों
में
प्रवेश
करते
जायेंगे
क्योंकि
आत्मज्ञान
की
कोई
सीमा
नहीं
है।.............
इसी
आत्मज्ञान
के
माध्यम
से
आप
यह
जानना
प्रारम्भ
करते
हैं
कि
ईश्वर
क्या
है,
सत्य
क्या
है,
समयातीत
अवस्था
क्या
है
?
संस्कृति
का
प्रश्न,
पृ.119
मन
स्वंय
आदतों
का
परिणाम
है।....................मन
को
अपने
द्वारा
संग्रहीत
समस्त
वस्तुओं
के
प्रति
विसर्जित
होना
होगा......................तब
हमारा
मन
स्वनिर्मित
विचारों
के
जाल
में
नहीं
फसेगा।
संस्कृति
का
प्रश्न,
पृ.126
‘होने’(Being)
की
क्रिया
‘बनने’
(Becoming)
की
क्रिया
से
एकदम
भिन्न
है।
होने
की
क्रिया
इतनी
क्रान्तिकारी
है
कि
समाज
उसे
अमान्य
कर
देता
है
औऱ
बह
अपना
सम्बन्ध
केवल
बनने
की
क्रिया
से
रखता
है
क्योंकि
वह
सम्मानजनक
है
औऱ
इसके
ढाँचे
के
अनुकूल
है।
संस्कृति
का
प्रश्न,
पृ.130
प्रेम
कुछ
अद्भुत्
ही
वस्तु
है।
आफ
यदि
केवल
अपने
ही
बारे
में
सोचते
रहते
हैं
तो
आप
प्रेम
नहीं
कर
सकते
–
इसका
यह
अर्थ
नहीं
कि
आप
हर
समय
किसी
अन्य
व्यक्ति
के
ही
सम्बन्ध
में
ही
सोचते
रहें।
प्रेम
तो
बस
“है”
इसका
कोई
उद्देश्य
नहीं
है
और
यह
किसी
के
लिये
नहीं
है।
वह
मन
जो
प्रेम
करता
है
सचमुच
वह
धार्मिक
मन
है,
क्योंकि
यह
वास्तविकता,
सत्य,
परमात्मा
की
चैतन्यता
के
साथ
है
औऱ
केवल
ऐसा
ही
मन
जान
सकता
है
कि
सौन्दर्य
क्या
है
?
संस्कृति
का
प्रश्न,
पृ.165
|
|
|
आत्मविस्तार
Vs
आत्मज्ञान |
|
|
क्या
मनुष्य
केवल
मन
औऱ
मस्तिष्क
ही
है,
अथवा
इससे
कुछ
ज्यादा
भी
है
?
इसे
आप
किस
प्रकार
खोजेंगे
? यदि
आप
केवल
उसी
पर
विश्वास,
उसी
की
कल्पना
औऱ
उसे
ही
स्वीकार
कर
लेते
हैं,
जो
शंकराचार्य
ने
या
बुद्ध
ने
किसी
और
किसी
व्यक्ति
ने
कहा
है
तब
आप
अनुसंधान
नहीं
कर
सकते,
सत्य
की
खोज
नहीं
कर
सकते।
इसके
लिये
आप
के
पास
केवल
एक
ही
तो
साधन
है,
और
वह
है
मन।
और
यह
मन
ही
मस्तिष्क
भी
है।
अथः
इश
विषय
के
सत्य
को
ज्ञात
करने
के
लिये
आपको
अपने
मन
की
समस्त
क्रियाओं
को
समझना
होगा,
क्या
नहीं
समझना
होगा
?
यदि
आपका
मन
कुटिल
है
तो
यह
सीधा
कैसे
देख
सकेगा
?
यदि
मापका
मन
सीमित
है
तो
यह
समयातीत
कैसे
जान
सकेगा
?
यह
मन
बोध
का
साधन
है
औऱ
वास्तविक
वैध
के
लिये
यह
अनिबार्य
है
कि
मन
सीधा
हो,
समस्त
संस्कारों
से
मुक्त
हो,
अभय
हो,
यह
भी
आवश्यक
है
कि
मन
ज्ञान
से
मुक्त
हो
क्योंकि
ज्ञान
ही
मन
को
दिशा-भ्रम
करता
है
और
वस्तुओं
को
विकृत
भी।
संस्कृति
का
प्रश्न,
पृ.187
|
|
|
सजगता
औऱ
संवेदनशीलता
में
क्या
अन्तर
है
?
Awareness and Senstivity |
|
|
सजगता
औऱ
संवेदनशीलता
में
क्या
अन्तर
है
?
चेतना
से
जुड़ी
स्थितियाँ
इनमें
अधिक
अन्तर
नहीं
है।
संस्कृति
का
प्रश्न,
पृ.195
विद्रोह
- विवेक
हमारी
दुर्भाग्यपूर्ण
दुर्बलताओं
में
से
एक
दुर्बलता
यह
भी
है
कि
हम
चाहते
हैं
कि
कोई
दूसरा
व्यक्ति
ही
हमारे
कामों
को
करे
तथा
हमारे
जीवन
के
मार्ग
को
बदले।
हम
प्रतीक्षा
करते
हैं
कि
दूसरे
विद्रोह
करें
तथा
पुनर्निर्माण
करें
और
हम
तब
तक
निष्क्रिय
बने
रहें
जब
तक
हम
परिणाम
के
प्रति
आश्वस्त
न
हो
जायें।
शिक्षा
एवं
जीवन
का
तात्पर्य,
पृ.30
अज्ञान
का
अर्थ
“स्व”
की
प्रक्रिया
के
प्रति
ज्ञान
का
अभाव
है
।
शिक्षा
एवं
जीवन
का
तात्पर्य,
पृ.41
समस्त
चेतन
एवं
प्रछन्न
प्रक्रिया
के
प्रति
जागरूकता
ही
ध्यान
है,
इसी
ध्यान
के
माध्यम
से
अहं
तथा
उसकी
वासनाओं
एवं
द्वन्द्वों
का
अतिक्रमण
किया
जाता
है।
शिक्षा
एवं
जीवन
का
तात्पर्य,
पृ.41
“जो
होना
चाहिये”
की
यह
नकल
केवल
भय
उत्पन्न
करती
है,
और
भय
सृजनशील
विचारणा
को
नष्ट
कर
देता
है।
............................
चेतन
तथा
अचेतन
भय
के
अनेक
भिन्न
कारण
होते
है,
औऱ
उन
सबको
मुक्त
करने
के
लिये
सक्रिय
जागरूकता
की
आवश्यकता
होती
है।
शिक्षा
एवं
जीवन
का
तात्पर्य,
पृ.42
विवेक
स्व
के
निषेध
से
आता
है
शिक्षा
एवं
जीवन
का
तात्पर्य,
पृ.48
बुद्धि
से
प्रज्ञा
कहीं
अधिक
बड़ी
है,
क्योंकि
उसमें
प्रेम
और
तर्क
बुद्धि
का
समन्वय
है,
परन्तु
प्रज्ञा
केवल
वहीं
सम्भव
है
जहां
आत्मज्ञान
है,
जहाँ
अपनी
समस्त
प्रक्रियाओं
का
गहरा
अवबोध
है।
शिक्षा
एवं
जीवन
का
तात्पर्य,
पृ.49
यदि
जीवन
सुख
से,
विवेक
से,
सावधानी
तथा
प्रेम
से
जीने
के
लिये
बना
है
तो
यह
बहुत
आवश्यक
है
कि
हम
अपने
को
समझें।
शिक्षा
एवं
जीवन
का
तात्पर्य,
पृ.59
अपनी
मनोवैज्ञानिक
प्रक्रियाओं
के
प्रति
जागरूक
होकर
हम
स्वंय
अपने
विवेक
को,
प्रज्ञा
को
जगायें।
शिक्षा
एवं
जीवन
का
तात्पर्य,
पृ.81
स्वतन्त्रता
आरम्भ
में
ही
होती
है
–
वह
कोई
वस्तु
नहीं
है
जिसे
अन्त
में
प्राप्त
किया
जाता
है।
शिक्षा
एवं
जीवन
का
तात्पर्य,
पृ.88
त्रिविध
योग
के
विषय
में
एक
बार
किसी
भिक्षु
ने
कृष्णजी
से
पूछा
कि
उनका
क्या
विचार
है
?
इस
पर
उन्होंने
प्रत्युत्त
दिया
कि
मैं
जो
करता
हूँ
वह
मेरा
प्रेम
है
और
वह
मेरा
ज्ञान
है।
जीवन
दर्शन,
पृ.101
मैंने
स्लेट
साफ
कर
रखी
है,
जीवन
उस
पर
चित्र
चित्रित
करता
है।
मनुष्य
की
चेतना
संस्कारबद्ध
है।
कोई
भी
विचारशील
व्यक्ति
इसे
स्वीकार
कर
लेगा।
स्कूलों
को
पत्र,
पृ.17
स्वतन्त्रता
का
अर्थ
है
अन्त,
अतीत
की
निरन्तरता
का
अन्त।
स्वतन्त्रता
का
कोई
विपरीत
नहीं
है।
-
जे.कृष्णमूर्ति,
स्कूलों
को
पत्र,
पृ.40
|
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