योगोपनिषत्
(योगशिखोपनिषत् योगतत्त्वोपनिषत्)
योगपनिषत् के अन्तर्गत परम्परा में
प्रमुख उपनिषदों के अतिरिक्त विभिन्न योगविद्याओं से सम्बन्धित योग के उपनिषद
समावेशित होते हैं। इस प्रकार योगोपनिषत् से समान्य अभिप्राय योग के उपनिषत् हैं।
योग के प्रमुख योगोपनिषदों में –
योगशिखोपनिषत्, योगतत्त्वोपनिषत्,
योगकुण्डल्युपनिषत्, योगचूड़ामण्युपनिषत्,
योगबिन्दु उपनिषत्, आदि परिगणित होते
हैं।
साहित्य-स्रोत
– “योगोपनिषत्”
के नाम से प्रमुख योग के उपनिषदों का प्रकाशन अडयार लाइब्रेरी, मद्रास के नाम से
प्रकाशित है। इसमें उपरोक्त विभिन्न उपनिषदों की चर्चा संक्षिप्त संस्कृत भाष्य के
साथ की गयी है। इसके अतिरिक्त “प्रमुख
108 उपनिषत्” के नाम से भी
उपनिषदों का सामूहिक प्रकाशन उपलब्ध होता है। ये मूल संस्कृत में हैं। अलग उपनिषदों
का स्वतन्त्र रूप से भी हिन्दी व्याख्या के साथ भी प्रकाशन हुया है।
योगशिखोपनिषत्
-
योगशिखोपनिषद्
का आरम्भ हिरण्यगर्भ एवं महेश्वर के संवाद के रूप में मिलता है। यहाँ
मुक्ति-मार्ग-जिज्ञासा के रूप में योग को बतलाने को कहा गया है। इसी सन्दर्भ में
योग विषय में विवेचन प्रारम्भ होता है।
योग के प्रभाव को स्पष्ट करते हुये कहा गया है कि योग के प्रथम दृष्ट प्रभाव के
अन्तर्गत रोगों का नाश हो जाता है। इसके बाद के सतत् अभ्यास से शरीर की जड़ता की
समाप्ति हो जाती है।
योग
की परिभाषा
–
योग शिखोपनिषत् में प्राण एवं अपान के एक्य तथा सूर्य एवं चन्द्र (नाड़ी) के संयोग
को ही योग कहा गया है। साथ ही अन्य प्रकार से जीव तथा परमात्मन का संयोग को भी योग
कहा गया है।
योगशिखोपनिषद में योग को परम मोक्षप्रदायक मार्ग कहा गया है
–
तस्माद्योगात् परतरो नास्ति मार्गस्तु मोक्षदः।।53।।
यहाँ पर ज्ञान एवं योग को परस्पर
आपेक्षित तथा आवश्यक बताया गया है –
योगेन रहितं ज्ञानं न मोक्षाय
भवेद्विधे।।51।।
ज्ञानेनैव विना योग न सिध्यति कदाचन।।
इसप्रकार यहाँ अभ्यासज्ञानयोग समुच्चय
को महत्व दिया गया है।
योग शिखोपनिषत् में योग के प्रकारों
की भी चर्चा की गयी है और इन्हें परम्परा से चार प्रकार का महायोग भी कहा गया है
।
ये हैं –
1.
मन्त्रयोग
2.
लययोग
3.
हठयोग, एवं
4.
राजयोग
मन्त्रयोग
-
मन्त्रयोग के अन्तर्गत कहा गया है कि
मूल मन्त्र “हंस”
है। जहाँ “हंस”
में “हं”
से तात्पर्य प्रश्वास वायु या वह प्राणवायु जिसे हम बाहर निष्कासित करते हैं
(ह-ध्वनित होता है।) एवं “स”
से तात्पर्य श्वास या प्राणवायु है,
जिसे हम ग्रहण करते हैं (स-ध्वनित होता है)। इस प्रकार उपनिषत् के अनुसार प्रत्येक
जीवधारी प्राणी श्वास-प्रश्वास के क्रम से हंस-हंस-हंस से मन्त्र की सृष्टि होती
है।
किन्तु जब गुरु के द्वारा मन्त्र वाक्य की प्राप्ति होती है तथा सुषुम्ना के जाग्रत
होने पर जब “हंस”
इस मन्त्र का व्युत्क्रम ध्वनित होने
लगे – सोsहं
- सोsहं
–
सोsहम्,
तब यह मन्त्र योग होता है।
सोsहं
में “सः”
से तात्पर्य
“वह”(ब्रह्म
/आत्मा) एवं
“अहम्”
से तात्पर्य –
“मैं”
हैं
इस प्रकार संयुक्त रूप से वह ब्रह्म
या आत्मा मैं ही हूँ इस की प्रतीति होना या ब्रह्म से अनुभूति का योग ही मन्त्रयोग
है।
हठयोगः
हठयोग के अन्तर्गत
“हठ”
शब्द में ह
–
से तात्पर्य सूर्य नाड़ी या पिंगला नाडी है। एवं ठ से अभिप्राय चन्द्र नाड़ी या
इड़ा नाड़ी है। जब सूर्य एवं चन्द्र नाड़ियों के ऐक्य से सुषुम्ना का जागरण होता है
तब इसे हठ या हठ की सिद्धी या हठ योग कहा गया है।
लययोगः
हठ के द्वारा जब जड़ता तथा सभी
दोषों का शमन हो जाये तथा क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीवात्मा एवं परमात्मा के ऐक्य की
अनुभूति हो एवं उस ऐक्य की अनूभूति के साधित होने पर जब चित्त ब्रह्म में विलीनता
को प्राप्त हो जाता है, तब इसे चित्त का लय होना एवं योग की विधी को लययोग कहा गया
है। लय की अवस्था को आत्मानान्द के सुख की स्थिति भी कहा गया है।
इस प्रकार उपरोक्त प्रकार से चारों
योग के समान्य स्वरूप की व्याख्या की गयी है तथा इन्हें मुक्ति प्राप्त कराने वाला
कहा गया है। इनमें सभी में प्राण एवं अपान वायु के समान होकर ही योग की स्थिति को
प्राप्त कराने वाला कहा गया है। इन योग चतुष्टयों की सिद्धि क्रम से तथा सतत्
अभ्यास से ही सिद्ध होने वाली बतलायी गयी है।
योग शिखोपनिषत् में चतुर्योगों के अतिरिक्त तीनबन्ध की चर्चा की गयी है
–
जो कि मूलबन्ध, उड्डीयान बन्ध एवं जालन्धर बन्ध हैं। इसी प्रकार यहाँ चार प्रकार के
कुम्भक की भी विवेचना की गयी है –
सूर्यभेद, उज्जायी, शीतली एवं भस्त्रिका। इन कुम्भकों को तीन बन्धों के साथ करने
को कहा गया है।
राजयोगः
योनिमध्ये
महाक्षेत्रे जपाबन्धूकसंनिभम्।136।।
रजो वसति जन्तूनां देवीतत्त्वं
समावृतम्।
रजसो रेतसो योगाद्राजयोग इति
स्मृतः।।137।।
आणिमादिपदं प्राप्य राजते
राजयोगतः।
योगसामान्यस्वरूपम्, योगेन
मुक्तिप्राप्तिश्च
योगतत्त्वोपनिषत्
योगतत्त्वोपनिषत् का आरम्भ हृषीकेश के प्रति योग तत्त्व के व्याख्यायन के रूप में
हुया है। यहाँ पर योगतत्त्व की दुर्लभता को बतलाया गया है। निम्नलिखित विशिष्ट
विवेचन योगतत्त्वोपनिषत् में प्राप्त होता है
–
आत्म तत्त्व
को प्राकृतगुणवियुक्त अर्थात् प्रकृति के गुणों से रहित कहा गया है।
ज्ञान एवं
योग दोनों के अभ्यास से ही योग की संप्राप्य बतलाया गया है।
ज्ञान का
स्वरूप - जिसके द्वारा कैवल्य की प्राप्ति हो वही ज्ञान है
इस ज्ञान को
ही सच्चिदानन्द रूप कहा गया है।
यहाँ पर भी
चार प्रकार के योगों की चर्चा की गयी है। मन्त्रयोग, लय, हठ तथा राजयोग।
मन्त्रयोग
-
मन्त्र योग के सम्बन्ध में कहा गया है
कि मातृका आदि छन्द के अन्तर्गत किसी मन्त्र का द्वादश वर्ष तक जाप करने से क्रमशः
अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। यहाँ मन्त्र योग के अल्पबुद्धि द्वारा एवं अधम
साधकों द्वारा सेवित होने को कहा गया है।
लययोग
-
चित्त के विलीन होने को लय कहा गया
है। इसकी विधि के सम्बन्ध में उपनिषद् में आता है कि चलते-बैठते-सोते-खाते अर्थात्
प्रत्येक क्रिया के साथ एक निष्कल ईश्वर का ध्यान विधि के रूप में वर्णित है। इस
प्रकार उस ईश्वर के वाचक शब्दों का संकलन किसी विशिष्ट वाक्य या वर्णों की संहति के
रूप में बने शब्द ही मन्त्र हैं। इन्हीं मन्त्रों की साधना मन्त्रयोग है।
हठयोग
योगशिखोपनिषत् के विवेचन से अलग
योगतत्त्वोपनिषत् में हठयोग को पतञ्जलि के अष्टांग योग के समान यम नियम आसन
प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि के रूप में बतलाया गया है। आगे उपनिषद्
में इन्हीं आठ अंगों का विस्तार से विवेचन भी किया गया है।
References
आदौ रागाः प्रणश्यन्ति पश्चाज्जाड्यं
शरीरजम्।।146।।
योsपानप्राणयोरैक्यं
रजसो रेतसस्तथा।
सूर्याचन्द्रमसोर्योगो
जीवात्मपरमात्मनोः।।68।।
एवं हि द्वन्द्वजालस्य संयोगो
योग
उच्यते।
मन्त्रो लयो हठो राजयोगान्ता भूमिकाः क्रमात्।।129।।
एक एव चतुर्धायं महायोगोsभिधीयते।
हकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत् पुनः।।130।।
हंसहंसेति मन्त्रोsयं
सर्वैर्जीवैश्च जप्यते।
गुरूवाक्यात् सुषुम्नायां विपरीतो भवेज्जपः।।
सोsहं
सोsहमिति
यः स्यान्मंत्रयोगः
स उच्यते।
प्रतीतिमान्त्रयोगाच्च जायते पश्चिमे पथि।132।।
हकारेण तु सूर्यः स्यात् सकारेणेन्दुरुच्यते।
सूर्याचन्द्रमसोरैक्यं
हठ
इत्यभिधीयते।।133।।
हठेन गृह्यते जाड्यं सर्वदोषसमुद्भम्।
क्षेत्रज्ञः परमात्मा च तयोरैक्यं यदा भवेत्।।134।।
तदैक्ये साधिते ब्रह्मंश्चित्तं याति विलीनताम्।
पवनः स्थैर्यमायाति
लययोगोदये
साति।।135।।
लयात् संप्राप्यते सौख्यं स्वात्मानन्दं परं पदम्।
प्राणापानसमायोगो ज्ञेयं योगचतुष्टयम्।।138।।
संक्षेपात् कथितं ब्रह्मन् नान्यथा शिवभाषितम्।
क्रमेण प्राप्यते प्राप्यमभ्यासादेव नान्यथा।।139।।
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