मन्त्रयोगः
योगशिखोपनिषत्
मन्त्रयोग
के
अन्तर्गत
कहा
गया
है
कि
मूल
मन्त्र
“हंस”
है।
जहाँ
“हंस”
में
“हं”
से
तात्पर्य
प्रश्वास
वायु
या
वह
प्राणवायु
जिसे
हम
बाहर
निष्कासित
करते
हैं
(ह-ध्वनित
होता
है।)
एवं
“स”
से
तात्पर्य
श्वास
या
प्राणवायु
है,
जिसे
हम
ग्रहण
करते
हैं
(स-ध्वनित
होता
है)।
इस
प्रकार
उपनिषत्
के
अनुसार
प्रत्येक
जीवधारी
प्राणी
श्वास-प्रश्वास
के
क्रम
से
हंस-हंस-हंस
से
मन्त्र
की
सृष्टि
होती
है।
किन्तु
जब
गुरु
के
द्वारा
मन्त्र
वाक्य
की
प्राप्ति
होती
है
तथा
सुषुम्ना
के
जाग्रत
होने
पर
जब
“हंस”
इस
मन्त्र
का
व्युत्क्रम
ध्वनित
होने
लगे
–
सोsहं
- सोsहं
–
सोsहम्,
तब
यह
मन्त्र
योग
होता
है।
सोsहं
में
“सः”
से
तात्पर्य
“वह”(ब्रह्म
/आत्मा)
एवं
“अहम्”
से
तात्पर्य
–
“मैं”
हैं
इस
प्रकार
संयुक्त
रूप
से
वह
ब्रह्म
या
आत्मा
मैं
ही
हूँ
इस
की
प्रतीति
होना
या
ब्रह्म
से
अनुभूति
का
योग
ही
मन्त्रयोग
है।
हकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत् पुनः।।130।।
हंसहंसेति मन्त्रोsयं
सर्वैर्जीवैश्च जप्यते।
गुरूवाक्यात् सुषुम्नायां
विपरीतो भवेज्जपः।।
सोsहं
सोsहमिति
यः स्यान्मंत्रयोगः
स उच्यते।
मन्त्रयोग
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योगतत्त्वोपनिषत्
में
मन्त्र
योग
के
सम्बन्ध
में
कहा
गया
है
कि
मातृका
आदि
छन्द
के
अन्तर्गत
किसी
मन्त्र
का
द्वादश
वर्ष
तक
जाप
करने
से
क्रमशः
अणिमादि
सिद्धियाँ
प्राप्त
होती
हैं।
यहाँ
मन्त्र
योग
के
अल्पबुद्धि
द्वारा
एवं
अधम
साधकों
द्वारा
सेवित
होने
को
कहा
गया
है।
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