योगसूत्र
का
कलेवर-
(Structure
of the Yoga Sutra)
महर्षि
पतञ्जलि
का
योगसूत्र
चार
पादों
या
अध्यायों
में
है।
जो
कि
क्रमशः
1.
समाधिपाद
2.
साधनापाद,
3.
विभूतिपाद
एवं
4.
कैवल्यपाद
हैं।
1.
समाधिपाद
- समाधिपाद
में
ग्रन्थकर्ता
ने
सर्वप्रथम
ग्रन्थ
का
उद्देश्य
– ‘अथ
योगानुशानम्’
के
रूप
में
तथा
‘योग’
की
परिभाषा
योगश्चित्तवृत्तियों
का
निरोध
है,
को
देते
हुए
चित्त
वृत्तियों
के
निरोध
से
उत्पन्न
होने
वाली
स्थित
को
समाधि
एव
दृष्टा(साधक)
के
स्वरूप
की
प्राप्ति
कहा
है।
इस
समाधि
के
सबीज
एवं
निर्बीज
आदि
विभिन्न
स्थितियों
की
भी
चर्चा
भी
कही
गयी
है।
2.
साधनापाद
–
साधनापाद
में
साधना
से
अभिप्राय
साधन
भी
है,
जिन
साधनों
या
विधियों
से
समाधि
की
स्थिति
या
चित्त
वृत्ति
के
निरोध
की
स्थिति
संभव
होगी
उनकी
चर्चा
साधनापाद
में
संरक्षित
है।
इसी
हेतु
योग
के
आठ
अंग
या
अष्टांग
योग-
यम,
नियम,
आसन,
प्राणायम,
प्रत्याहार,
धारणा,
ध्यान
एवं
समाधि
में
प्रथम
पाँच
की
चर्चा
भी
यहीं
पर
की
गयी
है।
3.
विभूतिपाद
- योगसूत्र
का
तृतीय
पाद
या
अध्याय
है।
विभूति
से
शाब्दिक
तात्पर्य
वि+भूति
या
विशेष
रूप
से
हो
जाने(स्थिति
को
प्राप्ति
करने)
में
है।
योग
साधना
की
प्रौढ़ता
साधक
के
अन्दर
विशिष्ट
क्षमतायें
उत्पन्न
कर
देती
है
जैसे
उसकी
देह(अस्तित्व)
अणु
के
समान
हो
सकता
है-इसे
अणिमा
कहा
गया
है।
इसी
क्रम
में
अष्ट
सिद्धियों
की
विवेचना
की
गयी
है।
4.
कैवल्यपाद
-
योगसाधना
की
पूर्णता
कैवल्य
या
मोक्ष
है।
यही
समाधि
की
भी
चरम
अवस्था
है।
जिसमें
साधक
अपने
चेतन
या
शुद्धस्वरूप
की
अनूभूति
एवं
प्राप्ति
करता
है।
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