भोजवृत्ति
तथा
उसका
रचनाकाल
–
भोज
के
राज्य
का
समय
1075-1110 विक्रमसंवत
माना
जाता
है।
भोज
की
वृत्ति
का
योग
के
अन्य
व्याख्याकारों
ने
भी
प्रचुरता
से
उल्लेख
किया
है।
नागोजिभट्ट
(विक्रमसंवत
1772) की
वृत्ति
में
1/46, 2/5,
2/12
एवं
3/25
आदि
स्थलों
पर
भोजवृत्ति
का
उल्लेख
किया
गया
है।
भोजवृत्ति
योगविद्वज्जनों
के
बीच
समादरणीय
एवं
प्रसिद्ध
है।
योगग्रन्थ
के
इस
सुवासित
पुष्प
में
स्वग्रन्थ
के
रचनाकार
होने
का
स्वंय
उल्लेख
किया
है
-
“धारेश्वर-भोजराज-विरचितायां
राजामार्तण्डाभिधानायाम्
”
जिससे
अभिप्राय
है
कि
धारेश्वर
भोजराज
राजा
मार्तण्ड
(जिन्हें
इस
नाम
से
अभिहित
किया
जाता
है)
के
द्वारा
विरचित
योग
ग्रन्थ
में.............।
मार्तण्ड
से
अभिप्राय
–
सिंह
।
भोज
का
दूसरा
अभिहित
नाम
रणरंगमल्ल
का
भी
उल्लेख
ग्रन्थ
की
प्रस्तावना-श्लोक
की
पाँचवीं
पंक्ति
में
मिलता
है।
ऐसा
प्रतीत
होता
है
कि
भोज
शैव
भक्त
भी
रहे
हों
क्योंकि
तृतीय
पाद
के
मंगलाचरणश्लोक
में
आपने
“भूतनाथः
स
भूतये”
एवं
ग्रन्थारम्भ
के
मंगलाचरण
के
पद्यों
में
“देहार्धयोगः
शिवयोः......”
का
सश्रद्धया
उल्लेख
किया
है।
आप
विंध्यवासी
थे
क्योंकि
एक
स्थल
भोजराज
द्वारा
कहा
गया
है
– “यह
अभिप्राय
मेरे
विंध्यवासी
द्वारा
कहा
गया
है
”।
व्याकरण,
धर्मशास्त्र,
शैवदर्शन,
ज्योतिष,
वास्तुशास्त्र,
रणविद्या
आदि
विषयों
पर
आपके
ग्रन्थ
प्रसिद्ध
हैं।
प्रसिद्ध
धर्मशास्त्र
ग्रन्थ
याज्ञवल्क्यस्मृति
के
लब्धप्रतिष्ठित
व्याख्याकार
अर्थात्
मितक्षराकार
विज्ञानेश्वर
आपके
सभा
में
थे,
ऐसी
प्रसिद्धि
है।
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