तत्त्ववैशारदी
में
अन्य
विभिन्न
दार्शनिक
मतों
का
भी
उल्लेख
किया
है
–
जिनमें
वैनाशिक,
प्रवादुक,
विज्ञानवादी,
स्वमत
एवं
नास्तिक
मतों
का
उल्लेख
है।
इसके
साथ
ही
भाष्य
में
आये
विभिन्न
शब्दों
का
वाचस्पति
मिश्र
के
द्वारा
संप्रदाय
सहित
उल्लेख
कर
भाष्य
की
स्पष्टता
में
अभिवृद्धि
की
है।
यथा
अपरे
वैशेषिका
(3/53)।
भाष्य
में
पञ्चशिखासूत्र
के
उदारण
के
प्रंसग
में
पंचशिखा
नाम
नहीं
कहा
गया
है
किन्तु
वाचस्पति
मिश्र
ने
उनके
नाम
का
सम्बन्धित
प्रंसग
में
स्मरण
करा
दिया
है।
इसीप्रकार
योगसूत्र
में
मूर्धपद(3/32)
आया
है।
वाचस्पति
मिश्र
इसे
स्पष्ट
करते
है
कि
यहाँ
मूर्ध
पद
से
अभिप्राय
सुषुम्ना
नाड़ी
है।
इसीप्रकार
1/17
में
सास्मित
समाधि
के
विषय
की
गयी
व्याख्या
अधिक
ग्राह्य
एवं
युक्त
है।
इसीप्रकार
1/32
के
स्पष्टीकरण
में
आपने
कहा
है
कि
–
एकतत्त्वाभ्यास
से
ईश्वर
शब्द
लक्षित
होता
है।
परन्तु
यदि
ईश्वर
ही
कहना
था
क्यों
नहीं
इसको
ईश्वर
ही
कह
दिया।
इसी
प्रकार
अन्य
स्थलों
पर
मौलिक
जानकारी
मिलती
है
जैसे
-
हिरण्यकगर्भकृतयोगशास्त्रम्
1 /1
इसमें
योगशास्त्र
को
हिरण्यगर्भयोग
से
अभिहित
किया
गया
है।
(तत्त्ववैशारदी
1/1)
‘यजुर्
योगे’
तथा
‘योग
समाधि’
के
मूल
सन्दर्भ
की
जानकारी
देती
है।
तत्त्ववैशारदी
के
अनुसार
ये
दोनों
व्याकरण
के
आचार्य
पाणिनी
के
ग्रन्थ
अष्टाध्यायी
के
धातुपाठ
में
संस्कृत
की
प्रमुख
क्रियाओं
( main verbs)
की
सूची
इस
रूप
अर्थित
किये
गये
हैं।
(तत्त्ववैशारदी
1/1)
इसप्रकार
कहा
जा
सकता
है
कि
वाचस्पति
मिश्र
की
तत्त्ववैशारदी
ग्रन्थ
योग
का
एक
टीकाग्रन्थ
ही
नहीं
है
अपितु
इसमें
अनेक
मौलिक
विचार
भी
समाहित
हैं,
जो
योगपरम्परा
के
विषय
में
महत्त्वपूर्ण
जानकारी
देते
हुये
उसे
समृद्ध
भी
करते
हैं।
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