विज्ञानभिक्षु
का
योगवार्तिक
- विशिष्टता
प्रस्तुत
सन्दर्भ
में
हमारा
विवेचनीय
विषय
योगवार्तिक
ही
है।
योगवार्तिक
का
विभिन्न
प्रकाशकों
द्वारा
प्रकाशित
है।
विज्ञानभिक्षु
अत्यन्त
प्रसिद्द
साख्याचार्य
के
रूप
में
प्रसिद्ध
रहे
हैं।
आपके
वार्तिक
ग्रन्थ
में
योगविवेचन
में
गहरी
अन्तर्दृष्टि
दिखायी
देती
है।
साथ
ही
समृति-पुराण
आदि
सन्दर्भों
के
द्वारा
आपने
अपने
ग्रन्थ
में
सांख्य-योग
शास्त्र
का
सुष्ठुतया
परिपोषण
किया
है।
आपने
अपने
वार्तिकग्रन्थ
में
मौलिकता
को
भी
प्रदर्शित
किया
है।
तथा
योगभाष्य
पर
उपलब्ध
अन्य
ग्रन्थों
से
अपने
विचार
न
मिलने
को
या
उन
ग्रन्थों
में
न्यूनताओं
का
भी
उल्लेख
प्रदर्शित
किया
है।
जैसे
योगसूत्र
के
प्रथमपाद
के
19 वें
तथा
21 वें
सूत्र
की
व्याख्या
में
वे
वाचस्पति
मिश्र
के
मत
का
भी
खण्डन
करते
है।
व्याख्या
के
प्रसंग
में
भी
विज्ञानभिक्षु
के
द्वारा
सम्बन्धित
अनेक
सम्प्रदायों,
दार्शिनिकों
के
वचनों
तथा
मतों
का
उल्लेख
कर
अपने
ग्रन्थ
को
अधिक
समृद्ध
तथा
उपयोगी
बनाया
गया
है।
जैसे
–
नास्तिकः
–
2/15,
वेदान्तमत -
4/19,
न्यायवैशेषिक
दर्शनम्
- 4/21,
3/13, 2/20, 2/5
योगशास्त्रविशेष -
3/30,
योगशास्त्रानन्तरम् -
3/26,
3/28।
यह
उनके
ग्रन्थ
का
मूल्यवत्ता
को
बढ़ाता
है।
इसके
साथ
ही
योगवार्तिककार
विज्ञानभिक्षु
के
द्वारा
योगभाष्य
के
अनेक
पाठभेद
का
भी
निदर्शन
अपने
ग्रन्थ
में
किया
है।
पाठभेद
से
अभिप्राय
है
कि
पातजंलि-योगसूत्र
में
तथा
उसपर
उपलब्ध
व्यासभाष्य
व्याख्या
में
एक
ही
सूत्र
की
व्याख्य़ा
में
किसी
के
द्वारा
किसी
शब्द
तथा
अन्य
के
द्वारा
अन्य
शब्द
का
प्रयोग
किया
जाना।
वस्तुतः
इससे
व्याख्या
में
ही
महत्वपूर्ण
अन्तर
पड़ता
है।
अतः
प्रमाणिक
अर्थ
निरूपण
के
लिये
पाठभेद
जानना
आवश्यक
होता
है।
विज्ञानभिक्षु
के
द्वारा
योगसूत्र
में
पाठभेद
- 1/17,
1/21, 1/25, 2/23।
व्यासभाष्य
के
कुछ
पाठ
भेद
दर्शाये
गये
हैं
- 1/24,
1/10, 3/32, 4/13।
उपरोक्त
पाठभेद
विज्ञानभिक्षु
के
मतानुसार
कुछ
तो
यथार्थ
हैं
तथा
कुछ
वास्तव
में
लेखक
के
प्रमाद
के
कारण
(लेखनत्रुटि)
स्वरूप
उत्पन्न
हुये
है।
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