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CONTENTS
| ज्ञानयोग क्या है ?|प्राचीन-सन्दर्भ|स्रोत-साहित्य |ज्ञानयोग का स्वरूप|ज्ञानयोग के दार्शनिक आधार|ज्ञानयोग की विधि|आचार्य शंकर का अद्वैत वेदान्त तथा ज्ञान योग|

योग के प्रकार - 5

ज्ञान योग

ज्ञान मार्ग

अन्य लिंक : पतंजलि योग | हठयोग | मन्त्र योग | लय योग |कर्म योग|ज्ञान योग|| भक्तियोग | ध्यानयोग |

 

ज्ञानयोग क्या है ?

तात्पर्य (meaning) ज्ञानयोग से तात्पर्य है – ‘विशुद्ध आत्मस्वरूप का ज्ञान या आत्मचैतन्य की अनुभूति है। इसे उपनिषदों में ब्रह्मानुभूति भी कहा गया है।

प्राचीन-सन्दर्भ

प्राचीन-सन्दर्भ (ancient reference) ज्ञानयोग के सन्दर्भ उपनिषदों में मिलते हैं जहाँ स्पष्टता पूर्वक कहा गये है कि ज्ञान के विना मुक्ति संभव नहीं है

ऋते ज्ञानन्न मुक्तिः

स्रोत-साहित्य

स्रोत-साहित्य (Source literature) ज्ञानयोग के साहित्य में उपनिषत्, गीता, तथा आचार्य शंकर के अद्वैत परक ग्रन्थ तथा उन पर भाष्यपरक ग्रन्थ हैं। इन्हीं से ज्ञान योग की परम्परा दृढ़ होती है। आधुनिक युग में विवेकानन्द आदि विचारकों के विचार भी इसमें समाहित होते हैं।

 

ज्ञानयोग का स्वरूप

 
 

ज्ञानयोग का स्वरूप (Nature of Jnana Yoga) ज्ञानयोग दो शब्दों से मिलकर बना है ज्ञान तथा  “योग           ज्ञान शब्द के कई अर्थ किये जाते हैं

*           लौकिक ज्ञान - वैदिक ज्ञान,

*           साधारण ज्ञान एवं असाधारण ज्ञान,

*           प्रत्यक्ष ज्ञान - परोक्ष ज्ञान 

किन्तु ज्ञानयोग में उपरोक्त मन्तव्यों से हटकर अर्थ सन्निहित किया गया है। ज्ञान शब्द की उत्पत्ति ज्ञ धातु से हुयी है, जिससे तात्पर्य है जानना। इस जानने में केवल वस्तु (Object) के आकार प्रकार का ज्ञान समाहित नहीं है, वरन् उसके वास्तविक स्वरूप की अनुभूति भी समाहित है। इसप्रकार ज्ञानयोग में यही अर्थ मुख्य रूप से लिया गया  है।

ज्ञानयोग में ज्ञान से आशय अधोलिखित किये जाते हैं  

*           आत्मस्वरूप की अनुभूति

*           ब्रह्म की अनूभूति

*           सच्चिदानन्द की अनुभूति

*           विशुद्ध चैतन्य की अवस्था

 
 

ज्ञानयोग के दार्शनिक आधार

 
 

ज्ञानयोग के दार्शनिक आधार (Philosophical foundationof Jnana Yoga) – ज्ञानयोग जिस दार्शनिक आधार को अपने में समाहित करता है, वह है ब्रह्म (चैतन्य) ही मूल तत्त्व है उसी की अभिव्यक्ति परक समस्त सृष्टि है। इस प्रकार मूल स्वरूप का बोध होना अर्थात् ब्रह्म की अनूभूति होना ही वास्तविक अनुभूति या वास्तविक ज्ञान है। एवं इस अनुभूति को कराने वाला ज्ञानयोग है। विवेकानन्द ज्ञान योग को स्पष्ट करते हुये कहते हैं कि आत्मा ऐसा वृत्त है जिसकी परिधि सर्वत्र है परन्तु जिसका केन्द्र कहीं नहीं है और ब्रह्म ऐसा वृत्त है जिसकी परिधि कहीं नहीं है, परन्तु जिसका केन्द्र सर्वत्र है। यही ज्ञान यथार्थ ज्ञान है।  

 
 

ज्ञानयोग की विधि

 
 

ज्ञानयोग की विधि (Method of Jnana Yoga) विवेकानन्द के अनुसार ज्ञानयोग के अन्तर्गत सबसे पहले निषेधात्मक रूप से उन सभी वस्तुओं से ध्यान हटाना है जो वास्तविक नहीं हैं, फिर उस पर ध्यान लगाना है जो हमारा वास्तविक स्वरूप है अर्थात् सत् चित् एवं आनन्द। उपनिषदों में इसे

*           श्रवण,

*           मनन एवं

*           निदिध्यासन

से कहा गया है। इसके अन्तर्गत ब्रह्मवाक्यों श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन को कहा गया है। ये ब्रह्म वाक्य प्रधान रूप से चार माने गये हैं

1.         अयमात्मा ब्रह्म

2.         सर्वं खल्विदं ब्रह्म

3.         तत्त्वमसि

4.         अहं ब्रह्मस्मि

गुरु मुख से इनके श्रवण के अनन्तर इनके वास्तविकर अर्थ की अनुभूति ही ज्ञानयोग की प्राप्ति कही गयी है।

 
 

आचार्य शंकर का अद्वैत वेदान्त तथा ज्ञान योग

 
 

आचार्य शंकर का अद्वैत वेदान्त तथा ज्ञान योग (Acharya Shankara Advait Vedanta and Jnana Yoga)– आचार्य शंकर (7-8 वीं शताब्दी        ईसा.) के अनुसार परमतत्त्व अद्वैत परक है, इस अद्वैत की अनुभूति ही वास्तविक ज्ञान है, इसे ही ब्रह्मनुभूति कहा गया है। चूँकि इस अनुभूति में सामान्य दुःख आदि नहीं रहते अतः आनन्द की स्थिति भी कहा गया है। आचार्य शंकर ने ज्ञान के द्वारा ही ब्रह्म की अनुभूति को सम्भव माना है। इसके लिये वे केवल कर्म या केवल भक्ति को अपर्याप्त मानते हैं। आचार्य शंकर के अद्वैत वेदान्त का सार निम्न श्लोक से कहा जाता है – 

ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः” 

अर्थात् ब्रह्म सत्य है एवं जगत मिथ्या है तथा जीव एवं ब्रह्म अलग नहीं है। (अर्थात् एक ही हैं।) इसी एकत्व या अद्वैत भाव की अनुभूति ही वास्तविक ज्ञान है। एवं इसकी

अनुभूति महावाक्यों (उपरोक्त चार) तथा उनके श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन से संभव बतलायी गयी है। इसके साथ आचार्य शंकर ने साधन-चतुष्टय को भी बतलाया है

1.          नित्यानित्य वस्तुविवेक

2.          इहमुत्रार्थ भोगविराग,

3.          शमदमादि साधनसम्पत्

4.          मुमुक्षत्व

 
 
 

Authored & Developed By               Dr. Sushim Dubey

&दार्शनिक-साहित्यिक अनुसंधान                      ?  डॉ.सुशिम दुबे,                             G    Yoga

Dr. Sushim Dubey

® This study material is based on the courses  taught by Dr. Sushim Dubey to the Students of M.A. (Yoga) Rani Durgavati University, Jabalpur  and the Students of Diploma in Yoga Studies/Therapy of  Morarji Desai National Institute of Yoga, New Delhi, during 2005-2008 © All rights reserved.