-Concise Encyclopedia of Yoga

That all what you wanted to know about Yoga!

Yogic concepts Traditions Ancient Texts Practices Mysteries 

   
Root Home Page
Index

About Yoga

Yoga Practices & Therapy
Yoga Sutra & commentaries
Yoga Schools
Traditional Texts of Yoga
Yoga Education
Modern Yogis
Yogic Concepts
Yoga Philosophy
Yoga Psychology
Yoga & Value
Yoga & Research
Yoga & Allied Sc.
Yoga & Naturopathy
List of all Topics
 
 
     
CONTENTS
| कर्मयोग क्या है ?|कर्मों का मनोदैहिक वर्गीकरण|कर्म का प्रयोजन की दृष्टि से वर्गीकरण |गीता में कर्मयोग|निष्काम कर्म या अनासक्त कर्म|कर्म योग की उपमा|उपसंहार|

योग के प्रकार - 6

कर्म योग

कर्म मार्ग

अन्य लिंक : पतंजलि योग | हठयोग | मन्त्र योग | लय योग |कर्म योग|ज्ञान योग|| भक्तियोग | ध्यानयोग |

कर्मयोग क्या है ?

कर्मयोग से तात्पर्य -

 अनासक्त भाव से कर्म करना कर्म के सही स्वरूप का ज्ञान।  

कर्मयोग दो शब्दों से मिलकर बना है कर्म तथा योग  

कर्मयोग के सन्दर्भ ग्रन्थ   गीता, योगवाशिष्ठ एवं अन्य।

1. कर्मों का मनोदैहिक वर्गीकरण

1. कर्मों का मनोदैहिक वर्गीकरण – 

          कर्म से तात्पर्य है कि वे समस्त मानसिक एवं शारीरिक क्रियाएँ ये क्रियाएँ दो प्रकार की हो सकती है। ऐच्छिक एवं अनैच्छिक। अनैच्छिक क्रियायें वे क्रियाएं हैं जो कि स्वतः होती हैं जैसे छींकना, श्वास-प्रश्वास का चलना, हृदय का धड़कना आदि। इस प्रकार अनैच्छिक क्रियाओं के अन्तर्गत वे क्रियाएँ भी आती हैं जो कि जबरदस्ती या बलात् करवायी गयी हैं। ऐच्छिक क्रियाओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है  

  1. वे क्रियाएँ या कर्म जो कि सोच-समझकर ज्ञानसहित अथवा विवेकपूर्वक किये गये हैं,
  2. वे क्रियाएँ या कर्म जो कि भूलवशात् या अज्ञानवशात् अथवा दबाव में किये गये हों।

दोनों ही स्थितियों में किसी किसी सीमा तक व्यक्ति इन क्रियायों के फल के लिये उत्तरदायी होता है।

कर्मयोग की व्याख्या में उपरोक्त क्रियाओं के विवेचन के अतिरिक्त कर्मों के अन्य वर्गीकरण को देखना भी आवश्यक होगा।

2. कर्म का प्रयोजन की दृष्टि से वर्गीकरण

2. कर्म का प्रयोजन की दृष्टि से वर्गीकरण - 

गीता में प्रयोजन का उद्देश्य की दृष्टि से कर्म का विशद् विवेचन किया गया हैइसके अन्तर्गत तीन प्रकार के विशिष्ट कर्मों की चर्चा की गयी है – 

1.  नित्य कर्म

2.  नैमित्तिक कर्म

3.  काम्य कर्म 

नित्य कर्म - वे उत्तम परिशोधक कर्म हैं, जिन्हें प्रतिदिन किया जाना चाहिये। जैसे - शुद्धि कर्म, उपासना परक कर्म आदि।

नैमित्तिक कर्म - वे कर्म हैं, जिन्हें विशिष्टि निमित्त या पर्व को ध्यान में रखकर किया  जाता है जैसे विशिष्ट यज्ञ कर्मादि अश्वमेध यज्ञ, पूर्णमासी यज्ञ(व्रत) आदि।

काम्य कर्म - वे कर्म हैं जिन्हे कामना या इच्छा के वशीभूत होकर किया जाता है इस कामना में यह भाव भी समाहित रहता है कि कर्म का फल भी अनिवार्य रूप से मिले इसीलिये इन्हें काम्य कर्म कहा गया है। चूँकि इनमें फल की अभिलाषा जुड़ी हुयी है अतः यह कर्म ही कर्मफल के परिणाम सुख या दुःख (शुभ या अशुभ) से संयोग कराना वाला कहा गया है। इसीलिये काम्य कर्मों को बन्धन का कारण कहा गया है क्योंकि सुख अपने अनुभूति के द्वारा पुनः वैसे ही सुख की अनुभूति करने वाला कर्म की ओर ले जाता है, इसी प्रकार दुःख ऐसी विपरीत अनुभूति हो इसके विरूद्ध कर्म कराने वाला बनाता है। इस प्रकार काम्य कर्म के अन्तर्गत किये गये कर्म अपने दोनों ही परिणामों (सुख तथा दुःख) के द्वारा बाँधते हैँ इसीलिये इन्हें बंधन का कारण कहा गया है। इसी काम्य कर्म के सुखद या दुःखद् परिणामों से निषेध के लिये भारतीय योग परम्परा में कर्मयोग की अवधारणा प्रस्तुत की गयी है। इस कर्मयोग को गीता में निष्काम कर्म एवं अनासक्त कर्म के नाम से भी प्रस्तुत किया गया है।

 

गीता में कर्मयोग

 
 

गीता में कर्मयोग   स्रोत-ग्रन्थ - गीता या कर्मयोग रहस्य

गीता या कर्मयोग रहस्य नामक ग्रन्थ में बाल गंगाधर तिलक ने गीता का मूलमन्तव्य कर्मयोग ही बतलाया है। जो कि निष्काम कर्म ही है।

 निष्काम से तात्पर्य  कामना से रहित  या वियुक्त  

निष्काम कर्म के सम्बन्ध में गीता का विश्लेषण निम्न मान्यताओं पर आधारित है

कामना से वशीभूत कर्म करने पर फलांकाक्षा या फल की इच्छा होती है जो कि उनके सुखादुःख परिणामों से बाँधती है। और यह आगे भी पुनः उसी-उसी प्रकार के सुख-दुःख परिणामों को प्राप्त करने की इच्छा या संकल्प को उत्पन्न करती है। अर्थात् वैसे-वैसे ही कर्म में लगाकर रखती है। इन्हें ही संस्कार कहा गया है। ये संस्कार तब तक प्रभावी होते हैं, जब तक या तो फलों को भोग करने की क्षमता ही समाप्त हो जाये (अर्थात् मृत्यु या अक्षमता की स्थिति में) या फलों के भोग से इच्छा ही समाप्त हो जाये (तब अन्तोगत्वा कर्मों को करने की इच्छा ही समाप्त हो जायेगी और इस प्रकार काम्य कर्म ही नहीं होंगे तो फल से भी नहीं बँधेगे)

                   उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि फलों के परिणाम से आसक्ति समाप्त होना उनमें भोग की इच्छा समाप्त होना ही सुख-दुःख के परिणाम या कर्म के बन्धन से छूटना है। इसीपरिप्रेक्ष्य में गीता अपने विश्लेषण से निष्काम कर्म या अनासक्त कर्म[1] की अवधारणा को प्रस्तुत करती है।


 


[1]      गीता में कर्म की सविस्तार चर्चा की गयी है। एवं कर्म की गति गहन बतलायी गयी है गहना कर्मणो गति। कृष्ण कहते हैं कर्म को भी जानना चाहिये, अकर्म को भी जानना चाहिये, विकर्म को भी जानना चाहिये। इस प्रकार गीता में कर्म के जिन प्रकारों की चर्चा आयी है, वे हैं

*           कर्म, अकर्म, विकर्म

*           आसक्त एवं अनासक्त कर्म

*           निष्काम कर्म

*             नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य कर्म

 
 

निष्काम कर्म या अनासक्त कर्म

 
 

निष्काम कर्म या अनासक्त कर्म निष्काम कर्म वस्तुतः यह बताता है कि किस प्रकार कर्म किया जाय कि उससे फल से अर्थात् कर्म के बन्धन से बँधे। इसके लिये ही गीता में प्रसिद्ध श्लोक जो कि बारंबार उल्लेखित किया जाता है

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भू मासङ्गोSस्त्वकर्मणि।। 

अर्थात्, तुम्हारा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में नहीं है, तुम कर्मफले के कारण भी मत बनो तथा कर्मों को करने (की भावना के साथ) साथ भी मत हो

          गीता का उपरोक्त श्लोक कर्मयोग के सिद्धान्त का आधारभूत श्लोक है तथा विभिन्न तत्त्वमीमांसीय आधार(सिद्धान्त) को भी अपने आप में समाहित करता है  

1. गुणों का सिद्धान्त गीता के अनुसार समस्त प्रकृति सत् रजस् तथा तमस् इन तीनों  गुणों की निष्पत्ति है। इसलिये प्रकृति को त्रिगुणात्मक भी कहा गया है। इसी के अनुरूप मानव देह भी त्रिगुत्मक है। इसमें सतोगुण से ज्ञान वृद्धि सुख आनन्द प्रदायक अनुभूति तथा ऐसे ही कार्य करने की प्रेरणा होती है। तथा इन फलों से बाँधने वाले भी ये गुण हैं। इसी प्रकार क्रिया परक, कार्यों को करने की प्रवृत्ति रजो गुण के कारण होती है क्योंकि रजोगुण का स्वभाव ही क्रिया है। इनसे सुख-दुःख की मिश्रित अनुभूति होती है। इस प्रकार की अनुभूति को कराने वाले तथा इनको उत्पादित करने वाले कर्मों में लगाने वाला रजो गुण है। अज्ञान, आलस्य जड़ता अन्धकार आदि को उत्पन्न करने वाला तमोगुण कहा गया है। इससे दुःख की उत्पत्ति एवं अनुभूति होती है। इस प्रकार समस्त दुःखोत्पादक कर्म या ऐसे कर्म जो आरम्भ में सुखद तथा परिमाण में दुःखानुभव उत्पन्न कराने वाले तमोगुण ही हैं या ऐसे कर्म/ फल तमोगुण से प्रेरित कहे गये हैं। इस प्रकार समस्त फलों के उत्पादककर्ता गुण ही हैं। अहंकार से विमूढ़ित होने पर स्वयं के कर्ता होने का बोध होता है। ऐसी गीता की मान्यता है। [1] 

2. अनासक्त तथा निस्त्रैगुण्यता -      उपरोक्त विश्लेषण से तीनों ही गुणों के स्वरूप के विषय में यह कहा जा सकता है कि सुख एवं दुःख को उत्पन्न करना तो इन गुणों स्वभाव ही है, और मानव देह भी प्रकृति के इन तीन गुणों के संयोजन से ही निर्मित है, तब ऐसे में स्वयं को सुख-दुःख का उत्पादन कर्ता समझना भूल ही है। ये सुख-दुःख परिणाम या फल हैं, जिनका कारण प्रकृति है। अतः इनमें आसक्त होना (आसक्त- सकना गुणों की जगह) ठीक नहीं है। (मा कर्मफल हेतुर्भू कर्मफल का कारण मत बनो)  

          इसी सन्दर्भ में गीता में निस्त्रैगुण्य होने को भी कहा गया है। (निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन)

          पुनः क्या कर्म करना बन्द कर दिया जाय गीता ऐसा भी नही कहती। क्योंकि गीता की स्पष्ट मान्यता है कि कर्म प्रकृति जन्य तथा प्रकृति के गुणों से प्रेरित हैं। अतः जब तक प्रकृति का प्रभाव, पुरुष पर रहेगा (प्रकृति से पुरुष अपने आप को अलग नही समेझेगा) तब तक गुणों के अनुसार कर्म चलते रहेंगे। उनको टालना संभव नहीं है। ( इसी परिप्रेक्ष्य में गीता में कहा गया है - मा सङंगोsस्तुकर्मणि अकर्म के साथ भी मत हो) किन्तु जब ऐसा विवेक (अन्तर को जान सकने की बुद्धि, विभेदन कर सकने की क्षमता) उत्पन्न हो जाये या बोध हो जाये कि समस्त कर्म प्रकृति जन्य हैं, तब कर्मों से आसक्ति स्वंयमेव समाप्त हो जायेगी। ऐसी स्थिति में कर्म, काम्य कर्म नहीं होंगे। तब वे अनासक्त कर्म होंगे। यही आत्म बोध की भी स्थिति होगी क्योंकि आत्मस्वरूप जो कि प्रकृति के प्रभाव से पृथक है का बोध ही विवेक या कैवल्य[2] है, मोक्ष[3] है। इसे ही कर्म योग कहा गया है।


[1]   प्रकृतैः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।    -   गीता 3 / 27
 
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः। गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।      -    गीता 3 / 28

[2]       केवल अकेला, प्रकृति से अलग, आत्म यानि स्वंय, अन्य सभी विकारों से रहित ।

[3]       “मुच्यते सर्वै दुःखैर्बंधनैर्यत्र मोक्षः जहाँ(जब) सभी दुःख एवं बंधन छूट जाये, वही  मोक्ष है। 

 
 

कर्म योग की उपमा

 
 

कर्म योग की उपमा

कर्म योग की उपमा विवेकानन्द दीपक से देते हैं। जिस प्रकार दीपक का जलना एवं या उसके द्वारा प्रकाश का कर्म होना उसमें तेल, बाती तथा मिट्टी के विशिष्ट आकार - इन सभी के विशिष्ट सामूहिक भूमिका के द्वारा संभव होता है। उसी प्रकार समस्त गुणों की सामूहिक भूमिका से कर्म उत्पन्न होते हैं।

फलों की सृष्टि भी गुणों का कर्म है कि आत्म का इसी का ज्ञान वस्तुतः कर्म के रहस्य का ज्ञान है, इसे ही आत्म ज्ञान भी कहा गया है। तात्पर्य यह भी है कि संस्कार वशात् उत्तम-अनुत्तम कर्म में स्वतः ही प्रवृत्ति होती है, तथा संस्कारों के शमन होने पर स्वंय ही कर्मों से निवृत्ति भी हो जाती है, ऐसा जानना विवेक ज्ञान भी कहा गया है। ऐसे ज्ञान होने पर ही अनासक्त भाव से कर्म होने लगते हैं, इन अनासक्त कर्मों को ही निष्काम कर्म कहा गया है। इस निष्काम कर्म के द्वारा पुनः कर्मों के परिणाम उत्पन्न नहीं होते। यही आत्म ज्ञान की स्थिति कही गयी है। इससे ही संयोग करने वाला मार्ग कर्मयोग कहा गया है। (क्योंकि यह कर्म के वास्तविक स्वरूप से योग करता है।)

 
 

उपसंहार

 
 

 कर्मयोग की अवधारणा कर्म के सिद्धान्त के मूलमन्तव्यों को समाहित कर कर्मों के यथा-तथ्य विश्लेषण को प्रस्तुत करती है। यह पुरातन भारतीय सृष्टि रचना के गुण सिद्धान्त को भी अपने में अन्तर्निहित करता है। इस प्रकार कर्म योग का सिद्धान्त मनोदैहिक विश्लेषण के द्वारा व्यक्ति तथा अस्तित्व अध्यात्मपरक विवेचन को प्रस्तुत करता है।

 
 
 
 

Authored & Developed By               Dr. Sushim Dubey

&दार्शनिक-साहित्यिक अनुसंधान                      ?  डॉ.सुशिम दुबे,                             G    Yoga

Dr. Sushim Dubey

® This study material is based on the courses  taught by Dr. Sushim Dubey to the Students of M.A. (Yoga) Rani Durgavati University, Jabalpur  and the Students of Diploma in Yoga Studies/Therapy of  Morarji Desai National Institute of Yoga, New Delhi, during 2005-2008 © All rights reserved.