निष्काम
कर्म
या
अनासक्त
कर्म
–
निष्काम
कर्म
वस्तुतः
यह
बताता
है
कि
किस
प्रकार
कर्म
किया
जाय
कि
उससे
फल
से
अर्थात्
कर्म
के
बन्धन
से
न
बँधे।
इसके
लिये
ही
गीता
में
प्रसिद्ध
श्लोक
जो
कि
बारंबार
उल्लेखित
किया
जाता
है
–
कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा
फलेषु
कदाचन।
मा
कर्मफलहेतुर्भू
मासङ्गोSस्त्वकर्मणि।।
अर्थात्,
“तुम्हारा
कर्म
करने
में
ही
अधिकार
है,
उसके
फलों
में
नहीं
है,
तुम
कर्मफले
के
कारण
भी
मत
बनो
तथा
कर्मों
को
न
करने
(की
भावना
के
साथ)
साथ
भी
मत
हो
”।
गीता
का
उपरोक्त
श्लोक
कर्मयोग
के
सिद्धान्त
का
आधारभूत
श्लोक
है
तथा
विभिन्न
तत्त्वमीमांसीय
आधार(सिद्धान्त)
को
भी
अपने
आप
में
समाहित
करता
है
1.
गुणों
का
सिद्धान्त
–
गीता
के
अनुसार
समस्त
प्रकृति
सत्
रजस्
तथा
तमस्
इन
तीनों
गुणों
की
निष्पत्ति
है।
इसलिये
प्रकृति
को
त्रिगुणात्मक
भी
कहा
गया
है।
इसी
के
अनुरूप
मानव
देह
भी
त्रिगुत्मक
है।
इसमें
सतोगुण
से
ज्ञान
वृद्धि
सुख
आनन्द
प्रदायक
अनुभूति
तथा
ऐसे
ही
कार्य
करने
की
प्रेरणा
होती
है।
तथा
इन
फलों
से
बाँधने
वाले
भी
ये
गुण
हैं।
इसी
प्रकार
क्रिया
परक,
कार्यों
को
करने
की
प्रवृत्ति
रजो
गुण
के
कारण
होती
है
क्योंकि
रजोगुण
का
स्वभाव
ही
क्रिया
है।
इनसे
सुख-दुःख
की
मिश्रित
अनुभूति
होती
है।
इस
प्रकार
की
अनुभूति
को
कराने
वाले
तथा
इनको
उत्पादित
करने
वाले
कर्मों
में
लगाने
वाला
रजो
गुण
है।
अज्ञान,
आलस्य
जड़ता
अन्धकार
आदि
को
उत्पन्न
करने
वाला
तमोगुण
कहा
गया
है।
इससे
दुःख
की
उत्पत्ति
एवं
अनुभूति
होती
है।
इस
प्रकार
समस्त
दुःखोत्पादक
कर्म
या
ऐसे
कर्म
जो
आरम्भ
में
सुखद
तथा
परिमाण
में
दुःखानुभव
उत्पन्न
कराने
वाले
तमोगुण
ही
हैं
–
या
ऐसे
कर्म/
फल
तमोगुण
से
प्रेरित
कहे
गये
हैं।
इस
प्रकार
समस्त
फलों
के
उत्पादककर्ता
गुण
ही
हैं।
अहंकार
से
विमूढ़ित
होने
पर
स्वयं
के
कर्ता
होने
का
बोध
होता
है।
ऐसी
गीता
की
मान्यता
है।
2.
अनासक्त
तथा
निस्त्रैगुण्यता
- उपरोक्त
विश्लेषण
से
तीनों
ही
गुणों
के
स्वरूप
के
विषय
में
यह
कहा
जा
सकता
है
कि
सुख
एवं
दुःख
को
उत्पन्न
करना
तो
इन
गुणों
स्वभाव
ही
है,
और
मानव
देह
भी
प्रकृति
के
इन
तीन
गुणों
के
संयोजन
से
ही
निर्मित
है,
तब
ऐसे
में
स्वयं
को
सुख-दुःख
का
उत्पादन
कर्ता
समझना
भूल
ही
है।
ये
सुख-दुःख
परिणाम
या
फल
हैं,
जिनका
कारण
प्रकृति
है।
अतः
इनमें
आसक्त
होना
(आसक्त-आ
सकना
गुणों
की
जगह)
ठीक
नहीं
है।
(मा
कर्मफल
हेतुर्भू
–
कर्मफल
का
कारण
मत
बनो)।
इसी
सन्दर्भ
में
गीता
में
निस्त्रैगुण्य
होने
को
भी
कहा
गया
है।
(निस्त्रैगुण्यो
भवार्जुन)
पुनः
क्या
कर्म
करना
बन्द
कर
दिया
जाय
?
गीता
ऐसा
भी
नही
कहती।
क्योंकि
गीता
की
स्पष्ट
मान्यता
है
कि
कर्म
प्रकृति
जन्य
तथा
प्रकृति
के
गुणों
से
प्रेरित
हैं।
अतः
जब
तक
प्रकृति
का
प्रभाव,
पुरुष
पर
रहेगा
(प्रकृति
से
पुरुष
अपने
आप
को
अलग
नही
समेझेगा)
तब
तक
गुणों
के
अनुसार
कर्म
चलते
रहेंगे।
उनको
टालना
संभव
नहीं
है।
( इसी
परिप्रेक्ष्य
में
गीता
में
कहा
गया
है
- मा
सङंगोsस्तुकर्मणि
–
अकर्म
के
साथ
भी
मत
हो)।
किन्तु
जब
ऐसा
विवेक
(अन्तर
को
जान
सकने
की
बुद्धि,
विभेदन
कर
सकने
की
क्षमता)
उत्पन्न
हो
जाये
या
बोध
हो
जाये
कि
समस्त
कर्म
प्रकृति
जन्य
हैं,
तब
कर्मों
से
आसक्ति
स्वंयमेव
समाप्त
हो
जायेगी।
ऐसी
स्थिति
में
कर्म,
काम्य
कर्म
नहीं
होंगे।
तब
वे
अनासक्त
कर्म
होंगे।
यही
आत्म
बोध
की
भी
स्थिति
होगी
क्योंकि
आत्मस्वरूप
जो
कि
प्रकृति
के
प्रभाव
से
पृथक
है
का
बोध
ही
विवेक
या
कैवल्य
है,
मोक्ष
है।
इसे
ही
कर्म
योग
कहा
गया
है।
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