परिचय - ध्यानयोग
ध्यानयोग ध्यान के माध्यम से
परमतत्त्व या ईश्वरानुभूति का मार्ग है। इसमें ध्यान एवं ध्यान की विधि प्रमुख है।
ध्यान
से आशय
ध्यान से
अर्थ है चित्त की एकाग्र, केन्द्रित स्थिति जो कि किसी वस्तु या विषय पर हो सकती
है। ध्यान शब्द में संस्कृत
की ‘धृ’
धातु प्रमुख है जिससे अभिप्राय है धारण करना। ध्यान में किसी वस्तु या विषय का धारण
होता है।
पतंजलि योग
सूत्र में ध्यान सातवें अंग के रूप में समाहित है, “तत्र
प्रत्यैकतानता ध्यानम्” जो कि
धारण के बाद की स्थिति है।
साङ्यसूत्र
में ध्यान को इस प्रकार व्याख्यायित किया गया है –
“ध्यानं निर्विषयं मनः”।
अर्थात्, निर्विषय मन की स्थिति ध्यान है।
संस्कृत में
‘ध्यायते’ - ‘ध्यायेते’
-‘ध्यायन्ते’
इस प्रकार रूप होते हैं।
अंग्रेजी में
ध्यान - Meditation कहा जाता
है। जिससे भाव है - continuous flow and deep concentration on spiritual
ideas अन्य सम्बन्धित पद
Contemplation, Rumination, Brooding etc.
हैं।
ध्यान
–
संकेन्द्रण –
एकाग्रता
ध्यान के परिप्रेक्ष्य में प्रायः
संकेन्द्रण (Concentration)
एवं एकाग्रता शब्द भी प्रयोग में लाये जाते हैं किन्तु इनमें सूक्ष्म अन्तर है।
एकाग्रता
से आशय है एक + अग्र =
एकाग्र अर्थात् जिसका अग्र या आगे की स्थिति एक हो,
संकेन्द्रण
या Concentration से अर्थ है
सम + केन्द्रण =
संकेन्द्रण अर्थात् जिसका केन्द्र एक
हो। संकेन्द्रण प्रायः सामान्य विषय-भाव परक होता है जबकि ध्यान में आध्यात्मिक भाव
प्रमुख है।
ध्यान
से धृ = धारण अर्थात् समग्र
रूप, समान रूप में में धारण। जैसे वस्त्र का धारण होता है तो हम वस्त्र मय होते
हैं, वैसे ही किसी ध्यान में किसी विषय या वस्तु का धारण होने से विषय या भाव मय हम
हो जाते हैं। इस प्रकार ध्यान के इस अर्थ के अन्य पद हैं - एकरूपता, तद्-रूपता,
तदाकारता आदि।
चित्र
–
पाँच इन्द्रियाँ जो कि विभिन्न रंगों से बनी है, छठी
इन्द्रिय जो कि मन है एवं दिखायी नहीं देता है इससे अभिकेन्द्रित स्थिति - ध्यान।
गीता
के अनुसार ध्यान
-
ध्यान का स्थल एवं आरम्भिक
आपेक्षाएँ
शुद्ध या पवित्र देश, आसन की स्थिर
स्थिति, न अधिक ऊची या नीची अवस्थिति कुशा आदि का आसन –
शुचौ देशे
प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं
नातिनीचं चैलजिनकुशोत्तरम्।
(भ.गी.
VI/11)
ध्यान की स्थिति
तत्रैकाग्रं मनः
कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने
युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।
(भ.गी.
VI/12)
-
ध्यान की आपेक्षित अवस्थितियाँ
या
ध्यान में क्या करना
है या
ध्यान में क्या होना
चाहिये ?
एकाग्र मन
काया एवं
ग्रीवा की समान स्थिति का धारण
नासिकाग्र
दृष्टि एवं दिशाओं को न देखना
प्रशान्त
(शान्ति भाव से प्रतिपूरित)
भयरहितता
ब्रह्मचारी
व्रत में स्थिति
संयमित मन
चित्
भगवदाकार (या भगवच्चित्त से)
सतत् प्रयास
कर्ता, (सतत् मन से प्रयास)
-
ध्यानयुक्त योगी की विशेषताएँ
ध्यानयुक्त योगी की विशेषताएँ बतलाते
हुए गीता में कहा गया है कि वह जितात्मनः, परमात्मा में समाहित, शीतोष्ण-सुखदुःख
तथा मान-अपमान में समता परक स्थिति
ज्ञान विज्ञान से तृप्त (संतुष्ट)
आत्म स्थिति, कूटस्थ, विजत इन्द्रिय युक्त है। वास्तव में ये ही प्रारम्भिक
अपेक्षाएँ एवं परिणाम दोनों को व्यक्त करते हैं।
-
ध्यान योग में भोजन, चर्या
युक्त आहार, विहार, कर्मों में युक्त
चेष्टाएं, न अधिक खाना न कम खाना, युक्त कर्मों में चेष्टाएं। गीता कहती है
–
युक्ताहारविहारस्य
युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य
योगो भवति दुःखहा।।
(भ.गी.
VI/17)
-
ध्यान –
अभ्यास एवं वैराग्य
ध्यानयोग के महत्वपूर्ण उपकरण मन है।
मन के ही माध्यम से ध्यान, एकाग्रता एवं अविचलत धारणा की स्थिति सम्भावित होती है।
अर्जुन इस परिप्रेक्ष्य में अत्यन्त व्यवहारिक समस्या उत्थापित करते हैं कि यह मन
अत्यन्त चलायमान है इन्द्रियों के द्वारा इसमें मंथन चलता रहता है। इसे वश में करना
वायु को वश में करने जैसा कठिन करना है। इस सम्बन्ध में गीता में कहा गया है कि
अभ्यासेन तु कौन्तेय
वैराग्येण च गृह्यते।।
(भ.गी.
VI/35)
अर्थात् यह अभ्यास एवं वैराग्य से मन
पर नियन्त्रण संभव होता है। गीता में यह कहा गया है कि
यतो यतो निश्चरति
मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो
नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।
(भ.गी.
VI/26)
अर्थात् जिस जिस भाव विचार या स्थल को
मन जाता हो, वहाँ वहाँ से उसका नियमन, नियन्त्रण, निग्रह करके अपने वश में लाये।
-
ध्यानयोग की परिणति
सर्वत्र समदर्शी, प्रशान्त मनस युक्त,
उत्तम सुख, शान्ति, निर्वाण, ब्रह्म प्राप्ति, स्थितप्रज्ञ आदि।
-
ध्यान योग की उपमा
ध्यान योग में अविचल एवं स्थिर चित्त
की उपमा देते हुए गीता में कहा गया है कि
यथा दीपो निवातस्थो
नेङ्गते सोपमा स्मृता।
अर्थात् जिस प्रकार वायु रहित स्थान
में दीपक की लौ चलायमान नहीं होती, उसी प्रकार ध्यानस्थ योगी के चित्त की अवस्था
रहती है, वह आत्मदृष्टि से आत्म को ही देखता हुया आत्म में ही संतुष्ट रहता है।
सन्दर्भ-ग्रन्थ
-
श्रीमद्भगवद्गीता, गीताप्रेस
गोरखपुर
-
गीतरहस्य या कर्मयोगशास्त्र,
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक,
-
Shrimadbhagavadgita, S. Radhakrishanan
प्रगत् अध्ययन एवं
चर्चा के लिये
-
ध्यान, साधना का पक्ष
-
ध्यान धारणा एवं समाधि
-
ध्यान के प्रकार
तथा प्रयोग
ध्यानयोग
परिचय -
ध्यानयोग
ध्यान से आशय
ध्यान
–
संकेन्द्रण –
एकाग्रता
ध्यान का
चित्रण
गीता के
अनुसार ध्यान
ध्यान का
स्थल एवं आरम्भिक अपेक्षाएँ
ध्यान की
आपेक्षित अवस्थितियाँ या
ध्यान में
क्या करना है या
ध्यान में
क्या होना चाहिये
ध्यानयुक्त
योगी की विशेषताएँ
ध्यान योग
में भोजन, चर्या
ध्यान
–
अभ्यास एवं वैराग्य
ध्यानयोग
की परिणति
ध्यान योग
की उपमा
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