लययोगः
योगशिखोपनिषत् के अनुसार
हठ
के
द्वारा
जब
जड़ता
तथा
सभी
दोषों
का
शमन
हो
जाये
तथा
क्षेत्रज्ञ
अर्थात्
जीवात्मा
एवं
परमात्मा
के
ऐक्य
की
अनुभूति
हो
एवं
उस
ऐक्य
की
अनूभूति
के
साधित
होने
पर
जब
चित्त
ब्रह्म
में
विलीनता
को
प्राप्त
हो
जाता
है,
तब
इसे
चित्त
का
लय
होना
एवं
योग
की
विधी
को
लययोग
कहा
गया
है।
लय
की
अवस्था
को
आत्मानान्द
के
सुख
की
स्थिति
भी
कहा
गया
है।
इस
प्रकार
उपरोक्त
प्रकार
से
चारों
योग
के
समान्य
स्वरूप
की
व्याख्या
की
गयी
है
तथा
इन्हें
मुक्ति
प्राप्त
कराने
वाला
कहा
गया
है।
इनमें
सभी
में
प्राण
एवं
अपान
वायु
के
समान
होकर
ही
योग
की
स्थिति
को
प्राप्त
कराने
वाला
कहा
गया
है।
इन
योग
चतुष्टयों
की
सिद्धि
क्रम
से
तथा
सतत्
अभ्यास
से
ही
सिद्ध
होने
वाली
बतलायी
गयी
है।
योग
शिखोपनिषत्
में
चतुर्योगों
के
अतिरिक्त
तीनबन्ध
की
चर्चा
की
गयी
है
–
जो
कि
मूलबन्ध,
उड्डीयान
बन्ध
एवं
जालन्धर
बन्ध
हैं।
इसी
प्रकार
यहाँ
चार
प्रकार
के
कुम्भक
की
भी
विवेचना
की
गयी
है
–
सूर्यभेद,
उज्जायी,
शीतली
एवं
भस्त्रिका।
इन
कुम्भकों
को
तीन
बन्धों
के
साथ
करने
को
कहा
गया
है।
हठेन
गृह्यते जाड्यं सर्वदोषसमुद्भम्।
क्षेत्रज्ञः परमात्मा च तयोरैक्यं यदा भवेत्।।134।।
तदैक्ये साधिते ब्रह्मंश्चित्तं याति विलीनताम्।
पवनः स्थैर्यमायाति
लययोगोदये
साति।।
योगशिखोपनिषत्,135।।
लयात् संप्राप्यते सौख्यं स्वात्मानन्दं परं पदम्।
प्राणापानसमायोगो ज्ञेयं योगचतुष्टयम्।।योगशिखोपनिषत्,
138।।
संक्षेपात् कथितं ब्रह्मन् नान्यथा शिवभाषितम्।
क्रमेण प्राप्यते प्राप्यमभ्यासादेव नान्यथा।।योगशिखोपनिषत्,
139।।
लययोग-
योगतत्त्वोपनिषत् के
अनुसार
चित्त
के
विलीन
होने
को
लय
कहा
गया
है।
इसकी
विधि
के
सम्बन्ध
में
उपनिषद्
में
आता
है
कि
चलते-बैठते-सोते-खाते
अर्थात्
प्रत्येक
क्रिया
के
साथ
एक
निष्कल
ईश्वर
का
ध्यान
विधि
के
रूप
में
वर्णित
है।
इस
प्रकार
उस
ईश्वर
के
वाचक
शब्दों
का
संकलन
किसी
विशिष्ट
वाक्य
या
वर्णों
की
संहति
के
रूप
में
बने
शब्द
ही
मन्त्र
हैं।
इन्हीं
मन्त्रों
की
साधना
मन्त्रयोग
है।
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